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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ७१ तिर्यगलोक नामक पृथक् पृथक् अधिकार हैं। फिर ज्योतिर्लोक और देवलोकका वर्णन है। त्रिलोकसारमें वैमानिक लोकके अन्तमें सिद्धलोकका वर्णन है। और ति० ५० के अन्तमें सिद्धलोक नामक अलग अधिकार है। इस तरह दोनोंके क्रममें तथा अधिकार संख्यामें अन्तर है।
१. ति०प० के लोकसामान्य अधिकारके प्रारम्भमें लगभग ९० गाथाओंके द्वारा जो मंगल निमित्त आदिकी चर्चा है त्रिलोकसारमें उसका कोई आभास तक नहीं है। ति० प० को ९१वीं गाथासे लोकसामान्यका कथन आरम्भ होता है जो इस प्रकार है
जगसेढिघणपमाणो लोयायासो सपंचदव्वरिदी।
एस अणंताणंतालोयायासस्स बहुमज्भे ॥११॥-ति० ५० १ । तदनुसार त्रिलोकसारकी तीसरी गाथासे उसका आरम्भ होता है जो इस प्रकार है
सव्वागासमणंतं तस्स य बहुमज्भदेसभागम्हि ।
लोगोऽसंखपदेसो जगसेढिघणप्पमाणो हु ॥३॥-त्रि० सा० । ति० ५० में श्रेणिके धनप्रमाणका निर्णय करनेके लिये पल्य सागर आदि प्रमाणोंका कथन ( गाथा १-९३ आदि) किया है। और त्रि० सा० में भी उसीका निर्णय करनेके लिये प्रमाणोंका कथन किया है। किन्तु त्रि० सा०' में प्रमाणोंका कथन तत्त्वार्थवार्तिक ( पृ० २०६ ) के अनुसार किया है। यथाभावके दो भेद हैं लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक के छ भेद हैं और लोकोतरके चार भेद हैं। द्रव्य, क्षेत्रकाल और भाव । द्रव्य प्रमाणके दो भेद हैंसंख्या और उपमा आदि । संख्या प्रमाणका कथन करनेके पश्चात् त्रि० सा० में (गा० ५३-९२ ) चौदह धाराओंका कथन किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-सर्वधारा, समधारा, कृतिधारा, घनधारा, कृति मातृकधारा, धनमातृकधारा, विषमधारा, अकृतिधारा, अघनधारा, अकृति मातृकधारा, अधन मातृकधारा, द्विरूप वर्गधारा, द्विरूप घनधारा, द्विरूप घनाघनधारा । इन धाराओंको संख्या प्रमाणका ही विशेष भेद बतलाया है ।
१. माणं दुविहं लौगिग लोगुत्तरमेत्य लोगिगं छद्धा ।
माणुम्माणो माणे गणि पडितप्पडिपमाणमिदि ॥३॥ २. 'प्रमाणं द्विविघं लौकिक लोकोत्तर भेदात् ।...
लौकिकं षोढ़ा मानोन्मानावमानगणना प्रतिमान।'