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७२ : जेनसाहित्यका इतिहास ___ इन धाराओंका कथन उपलब्ध साहित्यमें अन्यत्र देखनेमें नहीं आता। धाराओंके कथनका उपसंहार करते हुए त्रि० सा० में लिखा है कि यहाँ व्यवहारोपयोगी धाराओंका दिशा मात्र दर्शन कराया है विस्तारसे जाननेकी रुचि रखने वाले शिष्य परिकर्मसे जान सकते हैं ।
यह वही परिकर्म है जिसके अनेक उल्लेख धवला टीकामें मिलते हैं और जिसे इन्द्रनन्दिने अपने श्रु तावतारमें षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर रचा गया बतलाया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके सन्मुख भी वह वर्तमान था। अतः त्रि० सा० में उन्होंने उसका भी उपयोग किया है यह स्पष्ट है ।
धाराओंके पश्चात् उपमा प्रमाणोंका कथन है। इस तरह एक सौ बारह गाथाओंके द्वारा उक्त प्रमाणोंका कथन करके त्रि० सा० में लोकका वर्णन प्रारम्भ होता है । ति० प० में सामान्यलोक, अधोलोक और अवलोकमेंसे प्रत्येकका सामान्य, दो चतुरस्र, यवमुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटकके आकार रूप चित्रण करके क्षेत्रफल निकाला है। किन्तु त्रि० सा०२ में (गा० ११५-११७ ) केवल अधोलोकका ही उक्त आठ भेद रूपसे कथन किया है और ऊर्ध्वलोकका कथन ( गा० ११-१२०) सामान्य, प्रत्येक, अर्ध, स्तम्भ, और पिनष्टिके रूपमें पाँच प्रकारसे किया है। तिलोयपण्णत्तिमें यह कथन नहीं है।
आगे बातवलयोंका क्षेत्रफल बतलाया गया है। इस तरह १४२ गाथा तक लोक सामान्यका कथन है। आगे अधोलोकका कथन करते हुए नारक लोकका कथन किया है। उसमें सात पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंके बिल, नारकियोंका उत्पाद स्थान, विक्रिया, वेदना, आयु, शरीरकी ऊँचाई, अवधि ज्ञानका विषय तथा गति आगतिका कथन है।
२. दूसरे भावनलोक अधिकारमें भवनवासी देवोंके भेद, उनके इन्द्र, मुकुटोंमें चिह्न, चैत्यवृक्ष, सामानिक आदि देवोंका परिवार, आयु, उछ्वास आहारादिका कथन है जो ति० प० के ही समान है। अनेक गाथाओंमें भी समानता है।
३. तीसरे व्यन्तर लोकाधिकारमें व्यन्तर देवोंके भेद, उनके शरीरका वर्ण,
१. 'ववहारुवजोग्गाणं धाराणं दरिसिदं दिसामेत्तं ।
वित्थरदो वित्थररुइसिस्सा जाणंतु परियम्मे ॥९१॥'-त्रि० सा० । २. 'सामण्णं दो आयद जवमुर जवमज्झ मंदरं दूसं ।
गिरिगडगेणकि जाणह अट्टवियप्पो अधोलोको ॥११५॥-त्रि. सा.