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७० : जैन साहित्यका इतिहास
चार्यको नमस्कार करके इस शास्त्रका प्रारम्भ करते हैं और उन्होंने 'बल' का अर्थ चामुण्डराय और 'गोविन्द' का अर्थ राचमल्लदेव किया है । ये दोनों नेमिचन्द्राचार्य को नमस्कार करते थे ।
इस व्याख्यासे यह प्रमाणित हो जाता है कि त्रिलोकसारके कर्ता गोम्मटसारके कर्तासे अभिन्न हैं । तथा त्रिलोकसारकी रचनायें माधवचन्द्रकी तरह चामुण्डरायका भी सहयोग रहा है । माधवचन्द्र केवल टीकाकार ही नहीं थे, उनके द्वारा रचित कुछ गाथाएँ भी त्रिलोकसारमें यत्र तत्र पाई जाती हैं । उन्होंने अपनी प्रशस्ति में एक गाथाके' द्वारा इस बातका निर्देश किया है कि गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीको सम्मत कुछ गाथाएँ यत्र तत्र माधवचन्द्रने भी रची हैं । और गुरु नेमिचन्द्राचार्यने भी गाथामें माहवचंदुद्धरिया' लिखकर अपने शिष्य माधवचन्द्रके कृतित्वको स्वीकार किया है ।
इस तरह त्रिलोकसार सहकार पद्धति पर रचित एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है और इसकी रचना विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके मध्य में हुई है ।
इसमें समस्त गाथाएँ १०१८ हैं । और लोकसामान्य, भावनलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, वैमानिक लोक और नरतिर्यगलोक नामके छह अधिकार हैं । ग्रन्थकारने दूसरी गाथामें जिनभवनोंको नमस्कार करनेके व्याजसे लोकसामान्य को छोड़कर शेष अधिकारोंका निर्देश 'भवण-व्वितर - जोइसि - विमाणणरतिरियलोय जिणभवणे' के द्वारा कर दिया है । इसी तरह इन अधिकारोंके आदिमें मंगलगाथाके द्वारा उस उस लोक में स्थित जिन भवनोंको नमस्कार किया है ।
इसके आधारभूत ग्रन्थ कौन हैं, इसका कोई संकेत ग्रन्थकारने नहीं किया है । तथापि तिलोयपण्णत्ति और लोकविभाग जैसे प्राचीन ग्रन्थ इसके आधार होने चाहिये । जैसे तिलोयपण्णतिमें तीनों लोकों का विस्तृत वर्णन है उसी प्रकार इसमें भी वर्णन है । ति० प० की तरह इसका भी प्रथम अधिकार लोकसामान्य है उसीके अन्तमें नारक लोकका वर्णन है । किन्तु ति० प० में इसके लिये एक पृथक अधिकार है जिसका नम्बर दूसरा है ।
लोक सामान्य अधिकारके पश्चात् त्रिलोकसारमें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक लोकोंका क्रमसे वर्णन है । अन्तमें नरतिर्यग्लोकाधिकार है किन्तु ति० प० में भवनवासी और व्यन्तर लोकके मध्यमें नर लोक और
१. 'गुरु-णेमिचंद्र सम्मद-कदिवय - गाहा तहि तहि रइदा । माहवचंदतिविज्जेणिणमणुसरणिज्जमज्जेहिं ॥१॥'