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________________ ५८ : जेनसाहित्यका इतिहास सत्र २०से भरत क्षेत्रमें प्रवर्तित अवसपिणी कालके प्रथम सुषमसुषमा कालमें होनेवाली दशाका वर्णन है। सूत्र २०में कल्पवृक्षका स्वरूप बतलाया है । सूत्र २१ में भोगभूमिमें उत्पन्न हुए युगलोंके शरीरादिका कथन है। इस तरह २७वें सूत्र तक भोगभूमिज जीवोंका कथन है। सूत्र २८ में कहा है कि तीसरे कालमें पल्यका आठवां भाग काल शेप रहने पर पन्द्रह कुलकर उत्पन्न होते हैं । भगवान ऋषभदेवको १५वाँ कुलकर बतलाया है। सूत्र २९ में कुलकरोंके द्वारा स्थापित दण्ड व्यवस्थाका वर्णन है। सूत्र ३०-३३ में भगवान ऋषभदेव के जन्म और दीक्षा वगैरहका कथन है। सूत्र ३४-३६ में चौथे, पांचवे और छठे कालका कथन है। सूत्र ३७-४०में उत्सर्पिणी कालका कथन है । यहाँ दूसरा कालाधिकार समाप्त हो जाता है । तीसरे अधिकारमें सूत्र ४१ से ७१ तक चक्रवर्ती भरतकी दिग्विजय तथा विभूति वगैरहका बहुत विस्तारसे सुन्दर वर्णन किया गया है। इसमें वाहुबलिके साथ होने वाले युद्धकी कोई चर्चा ही नहीं है। अन्तमें भरतके वैराग्यका वर्णन करते हुए कहा है कि एक दिन भरत महाराज मज्जन गृहसे निकल कर आदर्श गहमें प्रविष्ट हो आत्म निरीक्षण करने लगे। उन्हें केवल ज्ञान और केवल दर्शनकी प्राप्ति हो गई तब उन्होंने आभरणादि त्यागकर पंचमुष्टि लोच किया और आदर्श गृहसे निकल कर प्रव्रज्या धारण की । अन्तमें उन्होंने निर्वाण लाभ किया। चौथे अधिकारमें सूत्र ७२ से १११ सूत्र पर्यन्त हिमवान आदि पर्वतोंका तथा हैमवत आदि क्षेत्रोंका वर्णन है। पांचवें अधिकारमें जिनेन्द्र देवके जन्माभिषेकका कथन है। छठेमें भरतक्षेत्र प्रमाण जम्बद्वीपके खण्ड उनका क्षेत्रफल, वर्षसंख्या, पर्वतसंख्या, विद्याधर श्रेणि संख्या, आदि संख्याओंका कथन है । सातवें अधिकारमें चन्द्र सूर्य आदिकी संख्याको बतलाकर सूर्य मण्डलोंकी संख्या, उनका क्षेत्र, अन्तर, विस्तार, दिन-रात्रिका मान, ताप क्षेत्र चन्द्र मण्डलों और नक्षत्र मण्डलोंकी संख्या आदिका कथन है। आठवें अधिकारमें नक्षत्र संवत्सर, युग संवत्सर, प्रमाण संवत्सर, लक्षण संवत्सर और शनिश्चर संवत्सर इन पाँच संवत्सरोंका निर्देश करके प्रत्येकके भेद बतलाये हैं । फिर संवत्सरके मासोंका उल्लेख करके श्रावणसे लेकर आसाढ़ पर्यन्त मास नामोंको लौकिक बतलाया है । इनके लोकोत्तर नाम इस प्रकार बतलाये हैं-१ अभिनन्दित, २ प्रतिष्ठ, ३ विजय, ४ प्रीतिवर्धन, ५ श्रेय-श्रेय, ६ शिव, ७ शिषिर, ८ हेमन्त, ९ वसन्त, १० कुसुम संभव, ११ निदाघ, १२ वनविरोध । इसी प्रकार १५ दिन और
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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