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________________ भूगोल- खगोल विषयक साहित्य : ५७ परम्पराके अनुसार उसका संकलन भी वलभी वाचनाके समय किया गया था । उसका परिचय भी दिया जाता है । इस ग्रंथका आरम्भ पंचनमस्कार मंत्रसे होता है । यह ग्रंथ अन्य अंग ग्रंथोंकी तरह गद्यात्मक सूत्रोंमें रचा गया है । भाषा अर्धमागधी है । अंग सूत्रोंकी तरह ही इसके प्रारम्भमें कहा गया है कि उस कालमें उस समय मिथिला नामकी समृद्ध नगरी थी । उसके बाहर उत्तर पूर्व दिशामें माणिभद्र नामका चैत्य था । वहाँके राजाका नाम जितशत्रु और रानीं - का नाम धारिणी था । उस समय वहाँ भगवान महावीर स्वामीका समवसरण आया । परिषद् आई । धर्मका उपदेश हुआ । परिषद् चली गई । उस कालमें उस समय श्रमण भगवान महावीरके ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । उनका गोत्र गौतम था । वे सात हाथ ऊँचे थे और समचतुरस्र संस्थानसे सहित थे । उन्होंने तीन बार दाहिनी ओरसे भगवानकी प्रदक्षिणाकी बन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके वे बोले भगवन् जम्बूद्वीप कहाँ है, वह कितना बड़ा है और किस आकारका है ? भगवान् बोले – गौतम ! यही जम्बूद्वीप है । यह सब द्वीपों और समुद्रोंके मध्यतेलमें पकाये हुए पुएकी तरह गोल है । रथके पहिए - कमलकी कणिका तरह गोल है । पूर्णमासीके चन्द्रमा में है । सबसे छोटा है । । के घेरेकी तरह गोल है की तरह गोल है । उसका आयाम और विस्तार एक लाख योजन है । तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल प्रमाण उसकी परिधि है ( सू० ३ ) । इस तरहसे इस ग्रंथका प्रारम्भ होता है । गौतम प्रश्न करते हैं और भगवान उसका उत्तर देते हैं । ९ सूत्र तक तो जम्बूद्वीप के बाह्य भागमें स्थित वेदिका वगैरहका ही वर्णन है । १० वें सूत्रसे भरत क्षेत्रका वर्णन आरम्भ होता है । इसे पहला अधिकार समझना चाहिये । १७वें सूत्र तक यह अधिकार समाप्त हो जाता है । ८ सूत्रों में भरत क्षेत्र, वैताढ्य पर्वत, पर्वत पर स्थित सिद्धायतन कूट, दक्षिणार्धं भरतकूट, उत्तरभरत और ऋषभकूटका वर्णन है । दूसरे अधिकार में भरतक्षेत्र में प्रवर्तित छें कालोंका वर्णन है । १८वें सूत्रमें कुछ गाथाएँ भी हैं जिनके द्वारा आवलि, उछ्वास, निश्वास आदिका स्वरूप कहा है। सूत्र १९ में पल्योपम और सागरोपमका कथन है। इसमें परमाणुका स्वरूप बतलाने वाली 'सत्थेण सुतिक्खेण वि' आदि गाथा दी है, जो तिलोयपण्णत्ति (१-९) में अनुयोग द्वार सूत्रमें, और ज्योतिष्करण्ड ( २-७३ ) तथा अन्य भी ग्रन्थोंमें पाई जाती है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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