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________________ ५६ : जेनसाहित्यका इतिहास विचित्र है। साथ ही पद्यको देखनेसे यह भी स्पष्ट है कि पद्यकार अवश्य ही प्रकृत पद्य रचनामें चतुर है । यदि उसमें किसी व्यक्तिका नाम न होता तो उसे मूल ग्रन्थकारकी रचना मान लेनेमें कोई बाधा नहीं थी। उसने यदि अन्य भी कुछ पद्य रचकर मूल ग्रंथमें सम्मिलित कर दिये हों तो कोई अचरजकी बात नहीं है। वह व्यक्ति या तो स्वयं बालचन्द्र सैद्धांतिक या उनका कोई शिष्य हो सकता है । श्री नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि इन बालचन्द्र सैद्धांतिकने ग्रंथमें मिलावट की है। उन्होंने लिखा है-'इनके सैद्धान्तिक विशेषणसे मालूम होता है कि ये कोई साधारण प्रति लेखक नहीं हो सकते । सिद्धान्त शास्त्रोंके ज्ञाताओकी ही यह पदवी होती है। इससे आश्चर्य नहीं जो ये वालचन्द्र सैद्धान्तिक वीरसेन जिनसेनके अनुयायी हों और इन्होंने ही तिलोयपण्णत्तिमें कुछ बातें धवलादिसे अन्यथा देखकर उसका संशोधन परिवर्धन करके उसे वर्तमान रूप दे दिया हो और फिर उनके इस संस्कार किये हुए ग्रंथकी ही प्रतिलिपियाँ सर्वत्र पहुँच गई हों।' प्रेमीजीका उक्त विचार असंगत नहीं प्रतीत होता। ऐसा होना संभव है । उन्होंने बालचन्द्र सैद्धान्ति नामके विद्वानोंका परिचय कराते हुए लिखा है कि 'बालचन्द्र सैद्धान्तिक नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमेंसे एकका उल्लेख काम्बदहल्लीमें कम्बदराय स्तम्भमें मिलता है। उनका समय श० सं० १०४० (वि० सं० ११७५) है। उनके गुरुका नामा राद्धान्तार्णवपारग अनन्तवीर्य और शिष्यका नाम सिद्धान्ताम्भोनिधि प्रभाचन्द्र था। एक और बालचन्द्र हुए हैं जो भावत्रिभंगीके कर्ता श्र त मुनिके गुरु और अभयचन्द्र सैद्धान्तिकके शिष्य थे। कर्नाटक कविचारितके कर्ता ने इनका समय विक्रमकी चौदहवीं शताब्दी बतलाया है। इन्होंने द्रव्य संग्रहकी टीका श० सं० ११९५ (वि० सं० १३३०) में लिखी है और अपने गुरुका नाम अभयचन्द्र बतलाया है।' श्वे० जम्बूद्वीपपण्णति जिनभद्र गणि क्षमा श्रमण से भी पूर्वमें संकलित किये गये कुछ ग्रंथ हैं जो उपांग कहे जाते हैं। उनमें एक उपांग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति भी है । श्वेताम्वर १. जै० सा० इ०, पृ० १६ ।। २. यह ग्रंथ शान्ति चन्द्ररचित संस्कृत वृत्तिके साथ धष्ठि देवचन्द लालचन्द भाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बईकी ओरसे वि० सं० १९७६ में प्रकाशित हुआ है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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