SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ५५ वस्थिताः चतुर्थोऽनवस्थितः । अत्र द्वौ सर्पपौ निक्षिप्तौ जघन्यमेतत् संख्येयप्रमाणम् ।'-त०वा०, पृ० २०६ । "एत्थ उक्कस्स संखेज्जय जाणणिमित्तं जम्बूद्वीपवित्थारं सहस्सजोयणउव्वेध पमाणचत्तारि सरावया कादव्वा सलागा पडिसलागा महासलागा । एदे तिण्णि वि अवट्ठिदा चउत्थो अणव ट्ठिदो । एदे सव्वं पण्णाए ठविदा । एत्थ चउत्थसरावयअभंतरे दुवे सरिसवे त्थुदे तं जहण्णयं संखेज्जयं जादं ।'-ति०प०, पृ० १७९ । अस्तु, ति०प० और त०वा के तुलनात्मक अध्ययनसे तो यही प्रकट होता है कि अकलंकदेवके सामने तिलोयपण्णत्ति नहीं थी; वल्कि लोकविनिश्चय था। उक्त चर्चाका उपसंहार उक्त चर्चासे यही निष्कर्ष निकलता है कि चूंकि वीरसेन स्वामीने तिलोयपण्णत्तिका निर्देश किया है अतः उससे पहले तिलोयपण्णत्ति रची जा चुकी थी। वीरसेन स्वामीके समकालीन हरिवंशपुराणके साथ उसके तुलनात्मक अध्ययनसे यह भी स्पष्ट है कि हरिवंशपुराणकारके सामने ति०प० थी और वह बहुत कुछ उसी रूप में थी जिस रूपमें वर्तमान है। किन्तु पश्चात् उसमें मिश्रण किया गया है। अकलंकदेवके सामने ति०प० उपस्थित नहीं थी किन्तु जिस लोकविनिश्चयके मतोंका उल्लेख ति०प० में है वह होना चाहिये । ह०पु० (शक सं० ७०५ )से एक शताब्दी पूर्व अकलंकदेव हुए हैं । अतः ति०प०की रचना उन्हींके समयके लगभग या उससे कुछ पूर्व होनी चाहिये। मिलावट किसने की ति० प० के चौथे अध्याय के मध्य में जहाँ चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण का कथन समाप्त होता है, एक पद्य वसन्ततिलका छन्द में आया है जो इस प्रकार है घोरटुकम्मणियरे दलिदूण लद्धं हिस्सेयसा जिणवरा जगवंदणिज्जा । सिद्धिं दिसंतु तुरिदं सिरिबालचंदसिद्धतियप्पहुदि भव्वजणाण सव्वे ॥१२११॥ "जिन्होने घोर अष्ट कर्मों के समूहको नष्ट करके निश्रेयस पदको प्राप्त कर लिया है और जगतके वन्दनीय हैं, ऐसे वे सर्व जिनेन्द्र शीघ्र ही श्री बालचन्द सैद्धान्तिक आदि भव्य जनोंको मुक्ति प्रदान करें।' इसके पश्चात् प्रत्येक तीर्थंकरके तीर्थमें हुए अनुवद्ध केवलियोंकी संख्या दी गई है । अतः मध्यमें पड़ा हुआ उक्त पद्य मूल ग्रन्थकारका तो हो ही नहीं सकता क्योंकि एक तो बालचन्द्र सैद्धान्तिकका नाम है। दूसरे उसकी स्थिति भी
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy