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५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
ति०प०के आठवें अधिकारमें मतान्तर रूपसे सोलह कल्पोंका कथन है । त०वा में ( ४।१९ ) सोलह कल्पोंका ही कथन है । और वह कथन ति०प०से मिलता है। इन्द्र विमानोंके नामोंके क्रममें कहीं-कहीं अन्तर है। १६ कल्पवाले भी वारह ही इन्द्र मानते हैं। सर्वार्थसिद्धि में तथा ति०प०में भी बारह इन्द्र बतलाये हैं । किन्तु त०वा में लिखा है कि लोकानुयोगके उपदेशसे चौदह इन्द्र कहे किन्तु यहाँ बारह ही लिखे गये हैं क्योंकि पूर्वोक्त क्रमसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र और सहस्रार इन्द्र दक्षिणेन्द्रके अनुवर्ती होते हैं और आनत तथा प्राणत कल्पमें एक-एक इन्द्र होता है।
तवा० (१० २२६ )में देवसेनाओंकी संख्याके सम्बन्धमें लिखा है कि इन छहों सेनाओंकी संख्या पदातियोंकी संख्याके समान होती है। यह संख्या विक्रियाकृत हैं। प्राकृत संख्या तो एक-एक सेनाकी छसौ है।' ति०प० ( ८1 २७० ) में इसे लोकविनिश्चयके कर्ताका मत बतलाया है। इसी तरह त०वा० ( पृ० २२५ )में सौधर्मेन्द्रकी देवियोंका जो प्रमाण बतलाया है, ति०प० (८॥ ३८६ )के अनुसार वह भी लोकविनिश्चय ग्रन्थका कथन है।
तवा० ( पृ० २०६-२०७ )में संख्या प्रमाणका कथन करते हुए उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्तका प्रमाण लानेकी रीति दतलाई है। तत्पश्चात् उपमा प्रमाणके आठ भेदोंका कथन किया है। ति०प०के प्रथम अधिकारके प्रारम्भमें उपमा प्रमाणके आठ भेदोंका कथन है और चतुर्थ अधिकारमें संख्याप्रमाणका कथन गद्य द्वारा किया गया है। प्रकरण चलता है व्यवहारकाल का। व्यवहार कालके प्रसंगसे संख्यातादि राशियोंकी उत्पत्तिको भी ला घुसेणा है । यदि बीचमें रखे इस गद्य भागको निकाल दिया जाये तो वर्णनमें कोई हानि नहीं पहुँचती । अतः यह पीछेसे सम्मिलित किया गया जान पड़ता है। यह प्राकृत गद्य, तत्त्वार्थवार्तिककी संस्कृत गद्यसे बहुत मिलती-जुलती हुई है। दोनोंका मिलान करनेसे यही प्रतीत होता है कि एक दूसरेका रूपान्तर है। किन्तु अनन्त राशिके भेदोंकी उत्पत्तिके कथनमें दोनोंमें अन्तर भी है। दोनोंका आरम्भिक भाग यहाँ दिया जाता है। ____ 'संख्येयप्रमाणावगमार्थ जम्बूद्वीप-तुल्यायाम-विष्कम्भा योजनसहस्रावगाहा बुद्धघा कुशूलाश्चत्वारः कर्तव्याः शलाका-प्रतिशलाका-महाशलाकाख्यास्त्रयो:
१. 'त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ता । इह द्वादश इष्यन्ते पूर्वोक्तेन
क्रमेण ब्रह्मोत्तर-कापिष्ठ-महाशुक्र-सहस्रारेन्द्राणां दक्षिणेन्द्रानुवर्तित्वात् आनतप्राणतकल्पयोश्च एककेन्द्रत्वात् ।'-त०वा०, पृ. २३३ ।