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४६ : जेनसाहित्यका इतिहास
शतं रासभराजानां नरवाहनमप्यतः । चत्वारिंशत्ततो द्वाभ्यां चत्वारिंशच्छतद्वयं ॥ ४९० ॥ भद्र (इ)वाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च' (?) वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतम् ॥ ४९१ ॥ द्विचत्वारिशदेवातः कल्किराज्यस्य राजता ।
ततोऽजितंजयो राजा स्यादिन्द्रपुरसंस्थितः ॥ ४९२॥-ह० पु, स०६० श्रीयुत प्रेमीजीने अपने एक लेखमें हरिवंश पुराणके जो उक्त श्लोक उद्धृत किये हैं, उनमें 'विषयभुभुजां' के स्थानमें 'विजयभुभुजां', 'पुरूढ़ानां' के स्थानमें 'मुरुण्डानां' और 'भद्रवाणस्य' के स्थान 'भट्टवाणस्य' पाठ हैं। ये पाठ ति० प० के विशेष अनुकूल है। 'गंधवपा' का जो 'रासभराजा' अनुवाद किया गया है वह भी ठीक है। भविष्य पुराणमें विक्रमको गन्धर्वसेनका पुत्र लिखा है। गर्दभी विद्या जाननेके कारण वह गर्दभिल्ल नामसे ख्यात हुआ। गर्दभका पर्यायवाची शब्द 'रासभ' देना उचित ही है ।
अतः ह० पु० की उक्त काल गणना भी ति० की ही ऋणी है।।
ति० प० में महावीर निर्वाणके पश्चात् हुए शक राजाके कालके विषयमें अनेक मत दिये हैं। ह. पु० के कर्ताने ति प० में दिये गये मतभेदोंको अपने ग्रन्थमें कहीं भी स्थान नहीं दिया है। जो मत उन्हें परम्परासे सम्मत प्रतीत हुआ वही ग्रहण किया है शेषको छोड़ दिया है। शक राजाके विषयमें भी सर्वमान्य मतका ही उल्लेख किया है।
वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद शक राजा हुआ, यही मत धवलामें और त्रिलोकसारमें मान्य किया गया है। ह. पु० के कर्ताने भी उसे ही मान्य किया है। ति० प० में लिखा है
णिव्वाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवरिमेसु ।
पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥१४९९।-अ० ४ । और हरि० पु० में इसे यो दिया है
वर्षाणां षट्शती त्यक्त्वा पञ्चाग्रं मासपञ्चकम् ।
मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥५५१॥-स० ६० । यह श्लोक उक्त गाथाका बिल्कुल अनुवाद जैसा लगता है । इसी तरह ति० ५० अ० ४ में गा० २७८ से कालका वर्णन है । ह० पु० के
१. 'एकत्रिशश्च' होना चाहिये ।