________________
भृगोल-खगोल विषयक साहित्य : ४७ सातवें सर्गमें यह पूरा वर्णन अनुवाद रूपसे वर्तमान है। दोनोंके प्रारम्भका कुछ भाग यहाँ दिया जाता है- ..
'पास-रसगंध-वण्णव्वदिरितो अगुरुलहुगसंजुतो । वत्तणलक्खण कलियं कालसरूवं इमं होदि ॥२७८॥ कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसु ।' वर्ण-गंधरस-स्पर्श-मुक्तोऽगौरवलाघवः । वर्तनालक्षणं कालो मुख्यो गौणश्च स द्विधा ॥१॥
x
जीवाण पुग्गलाण हवंति परियट्टणाइ विविहाई । एदाणां पज्जाया वट्ट ते मुक्खकाल आधारे ॥२८०।। जीवानां पुद्गलानां च परिवृत्तिरनेकधा। गौणकालप्रवृत्तिश्च मुख्यकालनिबंधना ॥४॥
सव्वाण पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वन्भेदेसु वट्ट ति ।।२८१॥ सर्वेषामेव भावानां परिणामादिवृत्तयः । स्वांतर्बहिनिमित्तेभ्यः प्रवर्तन्ते समन्ततः ॥५॥
X
बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सवदरिसिहिं । अब्भंतरं णिमित्तं णिय णिय दव्वेसु चेदि ।।२८२।। निमित्तमान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता । बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितस्तत्त्वदर्शिभिः ॥६॥
x
कालस्य भिण्णभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा । पुह पुह लोयायासे चेटुंते संचएण विणा ।।२८३॥ अन्यानुप्रवेशेन बिना कालाणवः पृथक् ।
लोकाकाशमशेषं तु व्याप्य तिष्ठन्ति संचिताः ॥७॥ उक्त गाथाओंके नीचे दिये श्लोक विल्कुल अनुवाद रूप है ।
तिलोयपण्णत्तिकी हरिवंश पुराणके साथ तुलना करनेसे यह स्पष्ट है कि हरिवंश पुराणकारके सामने जो ति• ५० थी वह आजकी ति० प० से एकदम भिन्न नहीं थी, बल्कि बहुत कुछ वर्तमान रूपमें ही थी । उसमें जो ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो पञ्चास्तिकाय वगैरहकी हैं, वे थोड़े बहुत रूपमें उस समय