SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ४५ पृ० २०३-२०६ ) में उसका स्पष्ट निषेध है। हाँ, श्वे० प्रज्ञापना (२०, १०) में वैसा कथन मिलता है। इस मिलानके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ह० पु० के कर्ताके सामने ति० प० का दूसरा अधिकार सम्भवतया इसी रूप में वर्तमान था। हरि० पु० के पांचवें सर्गमें मध्य लोकका वर्णन है। यह ति० प० के चतुर्थ अधिकारका ऋणी है। इस अधिकारके कुछ विषय हरि० पु० के ६०वें सर्गमें भी पाये जाते हैं। वे हैं शलाका पुरुषों का वर्णन, रुद्र और नारदोंका वर्णन, शक राजाका समय, महावीर निर्वाणके पश्चात् एक हजार वर्ष में भरतमें हुए राजवंशोंका वर्णन, कल्किका वर्णन आदि । हरिवंशमें तीर्थंकरोंके पूर्व जन्म के नगरादिका भी कथन है यह कथन ति० प० में नहीं है। बाकी तीर्थंकरों के जन्म, तिथि, माता पिता, जन्म, नक्षत्र, चैत्यवृक्ष और निर्वाण भूमिका कथन ति० ५० की तरह ही है। क्वचित् जन्म तिथियोंमें भेद भी पाया जाता है। वीर निर्वाणके पश्चात् जो एक हजार वर्षों में भारतमें हुए राजवंशोंको गिनाया है वह तो बिल्कुल ति० प० की गाथाओंका ही अनुवाद है जक्काले वीर जिणो णिस्सेयस-संपयं समावण्णो। तक्काले अभिसित्तो पालयणामो अवंतिसुदो ॥ १५०५ ॥ पालकरज्जं सट्ठि इगिसय पणवण्णविजयवंसभवा । चालु मुरुदयवंसा तीसं वस्सा सुपुस्समित्तम्मि ॥ १५०६ ॥ वसुमित्त अग्गिमित्ता सट्ठी गंधव्वया वि सयमेक्कं । णरवाहणा य चालं तत्तो भत्थट्ठणा जादा ॥ १५०७ ॥ भत्थट्ठणाण कालो दोणि सयाई हवंति वादाला । तत्तो गुत्ता ताणं रज्जे दोण्णि य मयाणि इगतीसा ।। १५०८ ॥ तत्तो चक्की जादो इंदसुदो तस्स चउम्मुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ॥१५०९॥ -ति० प० अ-४ x x वीर निर्वाणकाले च पालकोत्राभिषिच्यते । लोकेऽवंतिसुतो राजा प्रजानां प्रतिपालकः ॥ ४८७ ॥ षष्ठिवर्षाणि तद्राज्यं ततो विष(ज)यभूभुजां । शतं च पंच पञ्चाशद्वर्षाणि तदुदीरितम् ॥४८८॥ चत्वारिंशत् पुरुढा ( मुरुण्डा- ) नां भूमण्डलमखण्डितम् । त्रिंशत्तु पुष्यमित्राणां षष्ठिर्वस्वग्निमित्रयोः ॥ ४८९ ॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy