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________________ ४४ : जैनसाहित्यका इतिहास ___ ति० ५० के लोक सामान्याधिकारमें गणितकी प्रधानता है । विविध प्रकारसे लोक और वातवलयोंका क्षेत्रफल बतलाया गया है। यह सब कथन ह. पु० में नहीं है। किन्तु ति० ५० के प्रथम और द्वितीय अधिकारमें जिस प्रकार लोकका पूरब-पश्चिम विस्तार, वातवलयोंका बाहुल्य, नारकविलोंके नाम, संख्या, विस्तार, नारकियोंकी आयु, उत्सेध, अवधि ज्ञानका विषय, उत्पत्तिका विरह काल, नरकोंमें उत्पन्न होने वाले जीव, नरकोंसे निकलने वाले जीवोंकी दशा आदिका वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन ह० पु० में है । पूरे अधिकारकी गा० १०८ से १५६ तक ह० पु० में (४ सर्ग) श्लो० १७० से २१७ तक यथाक्रम अनुदित मिलती है। उससे यह भी पता चलता है कि मुद्रित ह. पु० में यत्र तत्र कुछ श्लोक छूटे हुए हैं। यथा श्लो० २०६-२०७के बीचमें एक श्लोक छूटा है जो ति० प० के २-१४५ गाथाके अर्थको लिये हुए है। हाँ, कहीं कहीं कथनकी शैलीमें अन्तर है । जैसे ति० प० में ( २-२८६ ) बतलाया है कि उपर्युक्त सात पृथिवियोंमें क्रमसे असंज्ञी आदि जीव उत्कृष्ट रूपसे आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन और दो बार ही उत्पन्न होते हैं। हरि० पु० ( ४-३७६-३७७) में इसीको इस प्रकार कहा है-सातवींसे निकला हुआ जीव उसीमें एक बार, छठीसे निकला हुआ पुनः छठीमें दो बार, पांचवींसे निकला हुआ पुनः पाँचवीमें तीन बार, चौथीसे निकला हुआ पुनः चौथीमें चार बार, तीसरीसे निकला हुआ पुनः तीसरीमें पांच बार, दूसरीसे निकला हुआ पुनः दूसरीमें छै बार और पहलीसे निकला हुआ असंज्ञी पहली पृथ्वीमें पुनः सात बार जन्म ले सकता है । दोनों कथनोंमें कोई अन्तर नहीं है केवल शैली भेद है। __ हां, ति० प० ( २-२९२ ) में जो यह बतलाया है कि सातवीं पृथिवीसे निकलकर तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुए कोई कोई सम्यक्त्वको भी प्राप्त कर सकते हैं, ह० पु० में यह कथन नहीं है। त० वार्तिकमें भी नहीं है । (षट्खं० पु० ६, ९, आरणाच्युत सुस्कन्धो द्विपर्यन्तमहाभुजः । नवग्रेवेयक ग्रीवोऽनुदिशोद्धनुद्रयः ॥३०॥ पंचानुत्तरसद्वक्त्रः सिद्धक्षेत्रललाटभृत् । सिद्धजीवश्रिताकाश देशविस्तीर्णमस्तकः ॥३१॥ स्वोदरस्थित-निःशेष-पुरुषादि-पदार्थकः । अपोरुषेय एवैष सल्लोकपुरुषः स्थितः ॥३२॥' ह° पु०, ४ स० । १. ति० प० भा० २ की भूमिकामें पृ० ५३ पर इस कथनको जो मतभेदोंमें गिनाया है वह ठीक ही है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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