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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ४३ हरिवंश पुराणके चतुर्थ सर्ग में २२ श्लोकों तक तो लोक सामान्यका वर्णन है, पश्चात् अधोलोकका वर्णन है । हरिवंश पुराणके कर्ताके सामने अकलंक देवका तत्त्वार्थवार्तिक' भी था और उन्होंने लोक सामान्यका वर्णन उसीके अनुसार प्रारम्भ किया है। तबा०में मध्यलोकको झल्लरीके आकार बतलाया है, ति०प०में ऐसा नहीं बतलाया। लेकिन हरिवंश पुराणमें भी झल्लरीके आकार मध्यलोक बतलाया है । साथ ही ति०प०को भी अपनाया गया है । यथा 'अद्ध मुरज्जस्सुदओ समग्गमुरजोदय सरिच्छो ॥१५०॥'-ति०प० १ । x मुरजार्धमधोमागे तस्योद्धे मुरजो यथा । । आकारस्तस्य लोकस्य किन्त्वेषः चतुरखकः ॥७॥ ह०प्र०स० ४ । हरिवंश पुराणके कर्ताने ति०प० की तरह अधोलोकको अर्धमृदंगके आकार और ऊर्ध्वलोकको पूर्ण मृदंगके आकार बतलाया है। साथ ही 'किन्त्वेषः चतुरस्रकः' लिखकर यह भी व्यक्त कर दिया है कि लोक मृदंगकी तरह गोल नहीं है, किन्तु चौकोर है। और आयतचतुरस्र लोकके संस्थापक वीरसेन स्वामी हैं । उन्हींका अनुसरण ह० पु० के कर्ताने किया है।। ह. पु० के कर्ताने पूर्व पश्चिम विस्तारका तो कथन किया है किन्तु दक्षिण उत्तर विस्तारका कथन नहीं किया। जब कि ति० ५० १-१४९ गाथामें दक्षिण उत्तर में सातराजु प्रमाण आयाम बतलाया है। इससे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि यह बात उस समय ति० ५० में नहीं थी। अन्यथा १४९ गाथाके पश्चात्की गाथाओंके अनुसार लोकके नापका कथन करते हुए भी हरि० पु० के कर्ता जिनसेन उसीको क्यों छोड़ देते। हरिवंश पुराणमें एक और विशेष कथन है। यद्यपि त० वा० (पृ० २२४) में लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात ग्रीवाः लिखकर लोकको पुरुषाकार बतलाया है किन्तु हरि०२ पुर० में उसकी रूपरेखाको बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है । ति० प० में यह कथन नहीं है। १. 'धर्माधर्म-पुद्गल-काल-जीवा यत्र लोक्यन्ते स लोक इति वा ।'-तवा०, पृ० ४५६ । 'कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाखिलाः । लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते ॥५॥'-ह०पु०, ४ सर्ग । 'ऊर्ध्वमधस्तिर्यङ्मृदङ्गवेत्रासनझल्लाकृतिः'-त०वा०, पृ० ७६ । वेत्रासनमृदंगोरुझल्लरी सदृशाकृतिः । अधश्चोध्वं च तिर्यक च यथायोगमिति त्रिधा ॥६॥-ह०पु०, ४ स० । २ 'अधोलोकोरुजंघादिस्तिर्यग्लोककटीतटः । ब्रह्मबोत्तरोरस्कोमाहेन्द्रान्तस्तु मध्यभाग् ॥२९॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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