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४२ : जैनसाहित्यका इतिहास तीर्थङ्करको नमस्कार किया गया है। इस तरह नौवें अधिकारके प्रारम्भ पर्यन्त १६ तीर्थङ्करोंको नमस्कार किया गया है और शेष आठ तीर्थङ्करोंको नौवें अधिकारके अन्तमें नमस्कार किया गया है। यह क्रम भी बड़ा विचित्र प्रतीत होता है।
इस तरह चूणिसूत्रोंके साथ तुलनाकी दृष्टिसे भी वर्तमान तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभकृत प्रतीत नहीं होती। किन्तु वर्तमान ति० प०में भी जो प्राचीनताके चिन्ह वर्तमान हैं उनसे इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूल ति०५० अवश्य ही प्राचीन होनी चाहिए और उसके कर्ता यतिवृषभ जैसे प्राचीन आचार्य ही होने चाहिए। किन्तु उसका मूलरूप क्या था यह कह सकना शक्य नहीं है; क्योंकि जैसा पं० फूलचन्दजीने अपने लेखमें बलताया है कि लोकको सर्वत्र उत्तर दक्षिण सातराजु माननेकी स्थापना वीरसेन स्वामीने की है और वर्तमान ति० प० में वीरसेन स्वामीके मतनानुसार ही कथन मिलता है। यदि वीरसेन स्वामीके सामने वर्तमान ति० प० का उक्त कथन होता तो वह आयत चतुरस्राकार लोककी स्थापनाका श्रेय स्वयं क्यों लेते और क्यों धवलामें इतने विस्तारसे उसका कथन करते । अतः यह निश्चित है कि उस समय ति० प० में उस प्रकारका कथन नहीं था।
जहाँ इस तरहकी मिलावटकी बात प्रमाणित होती है। वहाँ यह कैसे निर्णय करना सम्भव है कि ति०प०का मूलरूप अमुक था ।
फिर भी इतना निश्चित है कि वीरसेन स्वामीके सामने ति०प० थी, क्योंकि उन्होंने उसका उल्लेख किया है । और उसमें कुछ मिलावट करनेका कार्य अथवा पुरानी ति०प०के होते हुए नई ति०प०की रचना करनेका काम वीरसेन या उनके शिष्य जिनसेन जैसे प्रामाणिक आचार्य नहीं कर सकते। अतः पं० जीका यह कथन कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिकी रचना वीरसेनके शिष्य जिनसेन की है, ठीक नहीं है और इसलिए उन्होंने जो उसका समय निर्धारित किया है वह भी ठीक नहीं है। ____ हरिवंश पुराणकी रचना शक सं० ७०५में हुई है और हरिवंश पुराणके सर्ग चौथा, पाचवाँ, छठा, सातवां तथा सर्ग ६० का मिलान तिलोयपण्णत्तिसे करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि हरिवंश पुराणकी रचना करते समय उसके कर्ताके सामने ति०५० अवश्य थी। उसके उक्त अध्यायोंके अधिकांश वर्णन ति०प०के अनुवाद रूप हैं.। हाँ, कहीं-कहीं उनमें कुछ विशेषता भी है और मतभेद भी प्रतीत होता है। यहाँ दोनोंका थोड़ा-सा तुलनात्मक परिचय दे देना अनुचित न होगा।