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________________ भूगोल - खगोल विषयक साहित्य : ४१ इसके सिवाय शिवार्य' रचित भगवती आराधना गा० २०७५ में एक गणीके परीषह सहन करने पूर्वक समाधिमरण करनेका निर्देश है। टीकाकार अपरजितसूरिने गणिका अर्थ यतिवृषभाचार्य किया है और हरिषेण वृहत्कथाकोशकी १५६वीं कथामें तथा नेमिदत्तके आराधना कथाकोशकी ८१वीं कथामें इसका विवरण भी यतिवृषभके सम्बन्धमें मिलता है । उसकी संगति गाथाके 'दुसह - परीसहविसह' पदके साथ मिल जाती है । यदि शिवायके द्वारा निर्दिष्ट गणी यतिवृषभ ही हैं तो यतिवृषभका समय विक्रमकी छठीं शताब्दी नहीं हो सकता । उक्त बातोंके प्रकाशमें तिलोयपण्णत्तिका यतिवृषभ रचित होना भी संदिग्ध ही प्रतीत होता है । इसके सिवाय यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्रोंके साथ ति०प० की तुलना भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है । १. चूर्णिसूत्रोंके प्रारम्भमें पांच उपक्रमोंका निर्देश है - आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण वक्तव्यता और अर्थाधिकार । किन्तु ति० प० के प्रारम्भमें कहा गया है कि मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम, और कर्ताका कथन पहले करना चाहिए यह आचार्योंकी परिभाषा है । २. चूर्णिसूत्रोंमें निक्षेपपूर्वक नययोजनाकी प्राचीन परिपाटीका क्रियात्मक रूपसे पालन किया गया है । किन्तु ति० प० अ० १, गा० ८२ के द्वारा केवल यह कह भर दिया है कि जो नय प्रमाण और निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता उसे अयुक्त पदार्थ युक्तकी तरह और युक्त पदार्थ अयुक्तकी तरह प्रतीत होता है । किन्तु उसका अनुसरण नहीं किया गया । ३. चूर्णिसूत्रोंमें केवल कर्मप्रवाद और कर्मप्रकृतिका निर्देश है ! कर्मप्रवाद आठवें पूर्वका नाम है और कर्मप्रकृति दूसरे पूर्वके पंचमवस्तु अधिकारके चौथे प्राभृतका नाम है । इसी प्राभृतसे षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई है । इन दो आगमिक ग्रन्थोंके सिवाय अन्य किसी ग्रन्थ या आचार्यका नाम चूर्णिसूत्रोंमें नही पाया जाता । और यह बात चूर्णिसूत्रोंकी प्राचीनताको ही सिद्ध करती है । उधर ति० प० में लोकानुयोग विषयक अनेक ग्रन्थोंके उल्लेखोंके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थोंसे मूल ग्रन्थमें सम्मिलित की गई गाथाओंकी भरमार है । यह शैली चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभत्री शैलीसे कोई मेल नहीं खाती । चूर्णिसूत्रोंमें मंगलका नाम तक नहीं है और ति० प० के प्रारम्भमें पंचपरमेष्ठीका स्तवन करते हुए भी प्रथम अधिकारके अन्तमें ऋषभदेवको नमस्कार किया गया है और आगे प्रत्येक अधिकारके आदि और अन्तमें क्रमसे एक-एक १. जै० सा० ३०, पृ० २०-२१ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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