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४० : जैनसाहित्यका इतिहास यतिवृषभ आर्यमंगु और नागहस्तिके शिष्य थे, उन्हींसे कसायपाहुडके गाथासूत्रोंको पढ़कर उन्होंने उस पर चूणिसूत्र रचे थे। नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें आर्य मंगु और नागहस्तीका उल्लेख है। जयधवलामें लिखित इन दोनों नामके आचार्योंके साथ उनकी एक रूपता पर भी पीछे प्रकाश डाला गया है तथा यह भी दिखाया है कि पट्टावलीके आधार पर उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दीके पश्चात् नहीं जाता है। अतः उनके शिष्य यतिवृषभ उसी समयके लगभग होने चाहिये ।
किन्तु तिलोयपण्णतिमें भगवान महाबीरके निर्वाणसे लेकर एक हजार वर्ष तक की राजकाल गणना दी हुई है। अतः प्रचलित वीर निर्वाण संवत्के अनुसार ति० प० का समय १०००-४७० = ५३० वि० सं० से पूर्व नहीं कहा जा सकता। अतः यदि यतिवृषभ ति० प० के कर्ता हैं तो वे आर्यमंक्षु और नागहस्तिके शिष्य नहीं हो सकते और यदि वे उनके शिष्य हैं तो वे ति० प०के कर्ता नहीं हो सकते। क्योंकि विक्रम सम्वत् की ५-६वीं शताब्दीमें आर्यमंक्षु और नागहस्ती नामके किन्हीं आचार्योंके होनेका कोई संकेत तक नहीं मिलता।
दूसरी बात यह है कि वीरसेन स्वामीने जयधवला में चूणिसूत्रोंको एक नहीं अनेक जगह यतिवृषभ निर्मित लिखा है। किन्तु तिलोयपण्णतिका धवलामें उल्लेख करते हुए भी कहीं इस बातका आभास तक नहीं दिया कि तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभ कृत है।
तीसरे, जिस 'पणमह जिणवर वसह' आदि गाथाके आधारपर तिलोयपण्णत्तिको यतिवृषभ कृत माना जाता है वह गाथा जयधवलाके सम्यक्त्व अनुयोगद्वारके आदिमें मंगलरूपसे वर्तमान है और उसमें जो पाठ है वह बिल्कुल शुद्ध और मूल प्रतीत होता है
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणहरवसहं ।
दुसहपरीसहविसहं जइवसहं धम्मसुत्तपाठरवसहं ।' 'जिनवर वृषभको, गणधर वृषभको और श्रेष्ठ गुणधराचार्यको तथा दुःसह परीषहको सहनेवाले और धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ यतिवृषभको नमस्कार करो।'
इसमें 'गुणवसहं' की जगह 'गुणहरवसह' पाठ तथा 'दळूण' की जगह दुसह पाठ बिल्कुल उपयुक्त है। गुणधर कसायपाहुडके रचयिता हैं । यदि यह गाथा यतिवृषभ रचित है तो उनके द्वारा गुणधराचार्यको नमस्कार किया जाना उचित ही है और यदि जयधवलाकारके द्वारा रचित है तो उनके द्वारा गुणधराचार्य और यतिवृषभाचार्यको नमस्कार किया जाना और भी अधिक उपयुक्त है क्योंकि इन दोनोंके द्वारा रचित ग्रन्थों पर ही जयधवला टीका रची गई है।