SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ३९ अंश मूल है इसमें विवाद है और जब तक ति० प० की कोई प्राचीन प्रति उपलब्ध न हो तब तक उस विवादका निवटारा होना भी संभव नहीं है। और जब धवलाके पश्चात् ही मिलावटकी संभावना की जाती है तो इतनी प्राचीन प्रति मिलना भी असंभव ही है। अतः यत्किञ्चित् उपलब्ध साधनोंके प्रकाशमें पं० फूलचन्द्रजीकी तरह ति० प० के वर्तमान रूपकी समीक्षाके द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुंचनेका प्रयत्न व्यर्थ नहीं है यह मानकर प्रकृत चर्चा पर थोड़ा ऊहापोह किया जाता है। उससे प्रथम ति० प० कर्ताके सम्बन्धमें चर्चा करना उचित होगा क्योंकि प्रकृत विषयसे उसका गहरा सम्बन्ध हो सकता है। तिलोयपण्णत्तिके कर्ता और उसका समय धवला और जयधवलासे पूर्वके किसी ग्रन्थ अभिलेख या पट्टावली वगैरहमें तिलोयपण्णत्ति और उसके कर्ताके सम्बन्धका कोई उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया। तिलोयपण्णतिका सर्वप्रथम उल्लेख वीरसेन स्वामीकी धवलामें ही दृष्टिगोचर होता है क्योंकि उन्होंने उससे उद्धरण दिये हैं। किन्तु ति० प० के सम्बन्धमें वे भी मूक हैं। वर्तमान ति० ५० के अन्तमें दो गाथाएँ पाई जाती हैं जो इस प्रकार हैं पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दठूण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाठएवसहं ॥७६॥ चूण्णिसरूवछक्करणसरूवपमाण होइ किं जं तं। अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥७७॥ 'जिनवर वृषभको, गुणोंमें श्रेष्ठ गणधर वृषभको तथा परीषहोंको सहन करने व धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ यतिवृषभको देखकर नमस्कार करो।' 'चूणिस्वरूप तथा षट्करण स्वरूपका जितना प्रमाण है, त्रिलोक प्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थका भी प्रमाण उतना आठ हजार श्लोक परिमित है।' उक्त दोनों गाथाएँ तथा उनका यह अर्थ मुद्रित ति० ५० से दिया गया है । इन गाथाओंके कुछ पदोंके सम्बन्धमें जो पाठान्तर सुझाये गये है उनके विवादमें हम नहीं पढ़ना चाहते । पहली गाथामें यतिवृषभका नाम है और दूसरी गाथाके प्रारम्भमें चूर्णिस्वरूपका । धवला जयधवला तथा इन्द्रनन्दिके श्रु तावतारमें बतलाया है कि यतिवृषभने कसायपाहुडके गाथा सूत्रों पर छ हजार श्लोक प्रमाण चूणि सूत्रोंकी रचना की थी। अतः उक्त दो गाथाओंके आधार पर चूर्णिसूत्रोंके रचयिता यतिवृषभ तिलोयपण्णत्तिके कर्ता माने जाते हैं। चूणिसूत्रोंकी चर्चा में यतिवृषभके समयके सम्बन्ध विस्तारसे प्रकाश डाला गया है । अतः उसकी पुनरुक्ति न करते हुए इतना बतला देना आवश्यक है कि उक्त ग्रन्थोंके अनुसार
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy