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३६ : जैनसाहित्यका इतिहास
१. वीरसेन स्वामीने जीवट्ठाण क्षेत्रानुयोगद्वारकी धवलाटीकामें पृष्ठ १२ से लेकर लोकके आकार और परिमाणकी चर्चा की है। उसे देखनेसे मालूम पड़ता है कि उनके काल तक उपमा लोकके प्रमाणसे पांच द्रव्योंका आधारभूत लोकका प्रमाण भिन्न माना जाता था । उसकी पुष्टि राजवार्तिकसे भी होती है । वीरसेन स्वामीने जिस लोककी सिद्धि की है उससे राजवार्तिकमें बताये गये लोकमें अन्तर है । वीरसेन स्वामीका बतलाया हुआ लोक अधोलोकके मूलमें सातराज तो है पर वह चारों दिशाओंमें ही सातराजु है विदिशाओंमें नहीं, इस लिये इसका आकार चौकोर है । राजवातिकमें बतलाया हुआ लोक भी अधोलोकके मूलमें सात राजु है पर वह आठो दिशाओं और विदिशाओंमें सातराजु है अतः इसका आकार गोल हुआ। आगे वीरसेन स्वामीका बतलाया हुआ लोक पूर्व और पश्चिममें क्रम से घटकर मध्य लोकके पास एक राजु रह जाता है पर यह उत्तर और दक्षिण दिशामें नहीं घटता किन्तु सर्वत्र सात राजु ही रहता है। किन्तु राजवातिकमें बतलाया हआ लोक आठों दिशाओं और विदिशाओंमें घटता हुआ मध्यलोकके पास सर्वत्र एक राजु रहता है। इसी प्रकार मध्यलोकसे ऊर्ध्व लोक तक जानना चाहिये । इनमेंसे वीरसेन स्वामीके द्वारा बतलाये हुए लोकका घनफल ३४३ घन राजु है । किन्तु राजवातिकमें इस पाँच द्रव्योंके आधार भूत लोकका घनफल नहीं दिया। परन्तु राजवातिकमें तीसरे अध्यायके ३८वें सूत्रकी व्याख्यामें जगणीके घनको घनलोक कहा है । चालू मान्यताके अनुसार जगश्रेणीका प्रमाण सातराजु है अतः घनलोकका प्रमाण ३४३ घनराजु हुआ।
राजवातिकके दोनों उल्लेखोंसे यह भलीभांति समझमें आ जाता है कि वीरसेन स्वामीके समय तक जैनाचार्य उपमालोकसे पाँच द्रव्योंके आधारभूत लोकको भिन्न मानते थे। वीरसेन स्वामीने उक्त दोनों लोकोंकी मान्यताको नहीं पनपने दिया और उपमालोकके प्रमाण को मुख्य माना। ____ आगे पंडितजीने उन दो गाथाओंको उद्धृत किया है जो वीरसेन स्वामीने अपने मतकी पुष्टिमें धवलामें उद्धृत की है। वे दोनों गाथाएं तिलो० प० की नहीं है । साथ ही वीरसेन स्वामीने यह भी लिखा है कि 'उत्तर दक्षिण दिशाओंकी अपेक्षा लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राज है यद्यपि इसका विधान करणानुयोगके ग्रन्थोंमें नहीं है तो भी वहाँ निषेध भी नहीं है।'
किन्तु वीरसेन स्वामीके द्वारा स्थापित किये उक्त मतकी समर्थक तीन गाथाएं पण्डितजीने तिलोयप० से उद्धृत की है, और यह बतलाया है कि
१. त० वा०, १।२।