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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ३७ यदि ये गाथाएँ तिलोयपण्णत्तिमें पहलेसे वर्तमान होती तो वीरसेन स्वामी अपने मतके समर्थनमें उन्हें अवश्य उद्धृत करते । अतः जिस तिलोयपण्णत्तिका वीरसेन स्वामीने उल्लेख किया है वह वर्तमान ति० ५० से भिन्न होनी चाहिये । २. तिलो० प० में पहले अधिकारकी ७वीं गाथासे लेकर ८७वीं गाथा तक ८१ गाथाओंमें मंगल आदि छ अधिकारोंका वर्णन है। यह पूरा का पूरा वर्णन संत परूवणाकी धवलाटीकासे मिलता हुआ है। ये छह अधिकार तिलोयपण्णत्तिमें अन्यत्रसे संग्रहीत किये गये हैं इस बातका उल्लेख स्वयं ति० प० के कर्ताने पहले अधिकारकी ८५वीं गाथामें किया है। तथा धवलामें इन छह अधिकारोंका वर्णन करते समय जितनी गाथाएँ या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयप० से नहीं। इससे मालूम पड़ता है कि ति० प० के कर्ताके सामने धवला अवश्य थी। __३. लघीयस्त्रय आदि ग्रन्थोंके कर्ता भट्टाकलंकके तत्त्वार्थ भाष्यका उल्लेख धवला टीकामें अनेक जगह है। लघीयस्त्रयके छठे अध्यायके 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादे' श्लोकको वीरसेन स्वामीने धवलामें उद्धृत किया है । तिलोयपण्णत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा । तिलोयपण्णत्तिको देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि तिलोय० कारने इसे लघीयस्त्रयसे न लेकर धवलासे ही लिया है क्योंकि धवलामें इसके साथ जो एक दूसरा श्लोक उद्धृत है उसे भी उसी क्रमसे ति० के कर्ताने अपना लिया है। इससे भी यही प्रतीत होता है कि ति० प० की रचना धवलाके बाद हुई है। ४. धवला द्रव्य प्रमाणानुयोग द्वारके पृ० ३६ में तिलोयपण्णत्तिका एक गाथांश उद्धृत किया है। जो इस प्रकार है-'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरतंरो तिरियलोगोत्ति ।' वर्तमान ति० प० में यह नहीं है। वर्तमान तिलोयप० में इसका न पाया जाना यह सिद्ध करता है कि यह तिलोयपण्णत्ति उससे भिन्न है। ५. पाँचवा प्रमाण वही है जिसकी चर्चा हमने प्रारम्भमें की है और बतलाया है कि इससे वर्तमान ति० प० में मिलावटकी पुष्टि होती है। इन पाँच प्रमाणोंके आधार पर पण्डित फूलचन्द्रजीने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका संग्रह धवलाके अनन्तर हुआ है । तथा नेमिचन्द्रने अपने त्रिलोकसारकी रचना वर्तमान ति० प० के आधार पर ही की थी यह दोनोंकी तुलनासे स्पष्ट है। अतः धवलाकी रचनाके पश्चात् और त्रिलोकसारकी रचनासे पूर्व शक सं० ७३८ से लेकर ९०० के मध्यमें वर्तमान तिलोयपण्णत्तिकी रचना हुई है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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