________________
भृगोल-खगोल विषयक साहित्य : ३५ यही समय ति० प० का भी निश्चित होता है । दूसरी बात यह है कि परमात्मप्रकाश दोहा छन्दमें है और उक्त गाथा भी दोहोंके मध्यमें स्थित है। किन्तु इस गाथाकी स्थिति पर डा० उपाध्येने कोई आपत्ति नहीं की है। इसका मतलब है कि उसकी स्थितिमें सन्देहका आभास किसी प्रति या टीकाकारके द्वारा प्राप्त नहीं हुआ। उधर ति० प० में उक्त गाथाके आगे पीछेकी जब प्रायः सभी गाथाएं ग्रन्थान्तरोंकी ऋणी हैं तब उक्त एक गाथाको ही ति० प० की मूल गाथा भी कैसे माना जा सकता है।
इस तरह ति० ५० में इतर ग्रन्थोंसे बहुत सी गाथाएं ज्योंकी त्यों या किंचित् पाठभेदके साथ ली गई हैं। तिलोयपण्णत्तिमें मिलावट
यह हम बतला चुके हैं कि ति० प० में अन्य ग्रन्थोंसे बहुन सी गाथाएँ ली गई हैं। उसके सातवें अधिकारमें कुछ गद्य भाग भी ऐसा पाया जाता है जो धवलाटीकामें ज्योंका त्यों वर्तमान है, और धवलामें तिलोयपण्णत्तिका नामोल्लेख किया गया है तथा उस नामोल्लेखके साथ धवलाका गद्य ति० प०में ज्योंका त्यों वर्तमान है। अतः उसके सम्बन्धमें तो यह सन्देह किया ही नहीं जा सकता कि शायद वह गद्य ति० प० से धवलामें लिया गया हो, क्योंकि उस गद्यके द्वारा धवलाकारने अपने व्याख्यानका परिकमसे विरोध बतलाते हुए अपने व्याख्यानको तिलोयपण्णत्ति सूत्रका अनुसारी बतलाया है । यथा___ एसा तप्पाउग्गसंखेज्जरूवाहिय-जंबूदीवछेदणय-सहिददीवसमहरूवमेत्तरज्जुच्छेदणय-पमाण-परिक्खाविही ण अण्णाइरिय-उवदेस-परंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिणी (ति० प० अ-७, पृ० ७६६ तथा-षट्वं० पु० ४, पृ० १५७)।
अत यह असंदिग्ध है कि उक्त गद्य धवलासे ही तिलोयपण्णत्तिमें ली गई है । इससे यह आभास होना स्वाभाविक है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ति अपने मूल रूपमें नहीं है उसमें पीछेसे मिलावट की गई है। इस सम्बन्धमें प० फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शात्रीने 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकाल आदिका विचार' शीर्षकसे एक लेख जै० सि० भास्कर भाग ११, किरण एकमें प्रकाशित कराया था। उसमें पण्डित जीने लिखा है कि 'इसका (ति० प० का) सूक्ष्म निरीक्षण करनेसे जो अन्य एतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है उसपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका रचनाकाल ९वीं शताब्दीके पहलेका किसी भी हालतमें नहीं हो सकता । अपने इस मतके समर्थनमें पण्डित जीने जो पांच हेतु उपस्थित किये हैं । संक्षेपमें वे इस प्रकार हैं