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________________ २८ : जेनसाहित्यका इतिहास ___ अंगुलके तीन भेद हैं-उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । उत्सेधांगुल से पाँचसौ गुना प्रमाणांगुल होता है । अपसर्पिणी कालके प्रथम चक्रवर्ती भरतका यही आत्मांगुल होता है। भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जिस-जिस कालमें जो-जो मनुष्य होते हैं उम-उस कालके मनुष्योंका अंगुल आत्मांगुल कहा जाता है। उत्सेधांगुलसे देव मनुष्य, तिर्यञ्च नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई, निवास स्थान, तथा नगरादिका प्रमाण मापा जाता है। तथा द्वीप, समुद्र, कुलाचल, भरतादि क्षेत्रोंका माप प्रमाणांगुलसे होता है । (१।गा० १०७-१११)। छ अंगुलका पाद, दो पादोंका एक वितस्ति, दो वितस्तियोंका एक हाथ, दो हाथका एक रिक्कू (किष्कु), दो रिक्कुओंका एक दण्ड या धनुष और दो हजार दण्ड या धनुषका एक कोश होता है। चार कोशका एक योजन होता है। (१। गा० ११४-११६) ति०प० (४।२८५ आदि)में काल गणनाका क्रम दिया है। पुद्गलका एक परमाणु जितने क्षेत्रको रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं । और एक परमाणु अपने निकटवर्ती आकाश प्रदेशको जितनी देरमें अतिक्रमण करता है वह समय हैं । यह कालका सबसे लघु अंश है । असंख्यात समयोंकी एक आवलि होती है। संख्यात आवलियोंका एक उछ्वास होता है । सात उछ्वासोंका एक स्तोक, सात स्तोकोंका एक लव, साढ़े अड़तीस लवकी एक नाली और दो नालियोंका एक मुहूर्त होता है। एक समय कर्म मुहूर्तको भिन्न मुहूर्त कहते हैं । तीस मुहूर्त का दिन, १५ दिनका पक्ष, दो पक्षका एक मास, दो मासकी ऋतु, तीन ऋतुओंका अयन, दो अयनोंका वर्ष और पांच वर्षका युग होता है । ८४ लाख वर्षका पूर्वाग, चौरासी लाख पूर्वांगका एक पूर्व इसी तरह आगे नियुतांग, नियुत, आदि जानना। (गा० १, २८५-३०८)। ति० ५० का चौथा महाधिकार जैनधर्मके उन कथनोंकी दृष्टिसे जिन्हें पौराणिक कहा जाता है बहुत महत्त्वपूर्ण है । ___ यह पहले लिख आये हैं कि भरत क्षेत्रमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके छ भागोंके द्वारा सदा परिवर्तन होता रहता है । अवसर्पिणीके शुरूके तीन कालोंमें भोगभूमि रहती है । कल्पवृक्षोंसे ही आवश्यक सब वस्तुएँ उन्हें मिल जाती है। वे कल्पवृक्ष दस प्रकारके होते हैं उनमेंसे प्रकाश देने वाले कल्पवृक्षोंके कारण सूर्य वन्द्रमा आदि तक दृष्टि अगोचर रहते हैं । उनका प्रकाश पृथ्वी तक नहीं आता। फलतः वर्षा भी नहीं होती। जंगली पशु भी अहिंसक होते हैं । युगल स्त्री पुरुष मन्त समय उपस्थित होने पर बालक-बालिकाके युगलको जन्म देकर स्वर्गत हो गाते हैं । और युवा होने पर वे दोनों बालक बालिका पति पत्नीके रूपमें अपने
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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