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________________ भूगोलखगोल विषयक साहित्य : २९ माता पिताका स्थान ले लेते हैं । दिगम्बर साहित्यमें भोग भूमियोंके बारेमें केवल ७-७ दिनका ही विवरण मिलता है, जिसके अनुसार वे ४२ दिनमें ही तरुण हो जाते हैं । किन्तु यह व्यवस्था जघन्य भोगभूमि की हैं । ति०प०में मध्यम भोगभूमिमें ५-५ दिन और उत्तम भोग भूमिमें तीन-तीन दिन काल बतलाया है । श्वेताम्बर साहित्यमें ऐसा कथन मिलता है । जब भोगभूमिसे कर्मभूमि आती है तब उक्त बातोंमें धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगता है और जनता उन परिवर्तनोंको देखकर घबरा उठती है । तब एकके बाद एकके क्रमसे चौदह कुलकर (मनु) उत्पन्न होते हैं जो अपने-अपने समयकी कठिनाइयोंको दूर करनेका उपाय बताकर जनताको आश्वस्त करते हैं । अन्तिम कुलकर नाभिराय थे । उन्हींकी पत्नी मरूदेवीकी कोख से प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवने जन्म लिया था । ( ४। गा० ३१३ - ५५० में) कुलकरोंके कार्यका वर्णन आदि किया है। भगवान ऋषभदेव इस युगके आद्य नृपति और उनके पुत्र भरत आद्य चक्रवर्ती थे । महाभारतमें तथा बौद्धोंके दीघनिकायमें भी सृष्टिकी आदिमें ऐसे समयका वर्णन है जब न कोई राजा था और न कोई शासक और सद सुखी सन्तोषी और सदाचारी थे । कर्म भूमिके प्रथम कालमें त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं । ये शलाका पुरुष हैं -- २४ तीर्थङ्कर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण । चक्रवर्तियोंमें भरतके पश्चात् सगर हुए । इनका कथन हिन्दू पुराणोंमें भी आता है । नौ बलदेवोंमें ८वें श्री रामचन्द्र और नौवें कृष्ण जी के बड़े भाई बलदेव जीका नाम है । बलदेव जीके लिये पद्मनाम आया है। नौ नारायणोंमें लक्ष्मण तथा श्रीकृष्णजीका नाम है । नारायणोंके शत्रु प्रतिनारायणोंमें रावण और जरासंधका नाम है । ( ४। ५१५-५१९ ) । चौबीस तीर्थङ्करोंका कथन विस्तारसे किया गया है । उसमें उनके अवतरण स्थान, जन्मस्थान, माता-पिता, जन्मतिथि, जन्मनक्षत्र, वंश, आयु, शरीरकी ऊँचाई, रंग, चिन्ह, कुमारकाल, राज्यकाल, वैराग्यका कारण, दीक्षास्थान, दीक्षा की तिथि काल, नक्षत्र, वन, सह दीक्षित राजकुमारोंकी संख्या, पारणाका काल, केवलज्ञान प्राप्तिकी तिथि, समय, नक्षत्र और स्थान, और उनकी उपदेश सभा, समवसरण आदिका कथन किया है । गा० ८९६ आदिमें तीर्थंकरोंके चौतीस अतिशयों और ८ प्रातिहार्योंका कथन है । आठ प्रातिहार्यो में उसके स्थानमें लिखा है कि वारह गण तीर्थंकरको घेर कर स्थित रहते हैं । गा० ९१६-९१८ में तीर्थंकरोंके केवलज्ञानके वृक्षोंके नाम गिनाये हैं, और लिखा है कि जिन वृक्षोंके नीचे तीर्थंकरोंको केवलज्ञान हुआ वे सब अशोक वृक्ष हैं । दिव्य ध्वनि नही है समवशरणकी रचनाका वर्णन सांस्कृतिक दृष्टिसे भी उल्लेखनीय है । इसी
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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