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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३७५ तद्वदपरस्यासृष्टि: । रागादिरहितस्य च स्रष्दुः सर्जने सर्गे प्रयोजनभावः क्रीडा प्रयोजनाङ्गीकरणे रागादिमत्वं सुखितदुःखितदेवादिकरणेऽस्थानपक्षपातः । तत्स्वभावत्वाभ्युपगमे न चालाद् (न प्रमाणं, न चास्मात्) कस्यचिदुत्पत्तिः । (ह. टी०, पृ० २२-२३)।
एक हरिभद्र जयसिंहके राज्यकालमें हुए हैं । उन्होंने उमास्वातिके प्रशमरति प्रकरण तथा कर्मग्रन्थों आदि पर संस्कृतमें वृत्तियाँ रची है। किन्तु तुलना करनेसे तत्त्वार्थ की वृत्ति उन हरिभद्रकी प्रतीत नहीं होती।
चूंकि टीकाकार हरिभद्रका व्यक्तित्व अनिर्णीत है अतः टीकाके रचना कालका भी निर्णय कर सकना शक्य नहीं है। चूंकि सिद्धसेनकी टीकाका अनुसरण इसमें किया गया है। अतः इतना निश्चित है कि उसके पश्चात् ही इसकी रचना हुई है । सिद्धसेनने अपनी टीकामें सिद्धि विनिश्चयकातो उल्लेख किया ही है इसके सिवाय उनकी तत्त्वार्थ टीका अकलंकदेवके तत्त्वार्थ वार्तिककी भी ऋणी है यह हम पहले बतला आये हैं। तथा सिद्धसेन द्वादशारनयचक्रके टीकाकार सिंहसूरके प्रशिष्य थे और सिंहसूर विक्रमकी सातवीं शताब्दीमें अवश्य वर्तमान थे। अकलंकदेव भी उनके लघुसमकालीन थे । अतः सिद्धसेन विक्रमकी आठवीं शताब्दीके विद्वान थे । याकिनीसूनु हरिभद्रका समय भी विक्रमकी ८वीं९वीं शताब्दी सुनिश्चित है। यदि उक्त हरिभद्रीय टीका याकिनीसूनु हरिभद्र रचित है तो उसका रचनाकाल भी यही है । अन्यथा विक्रमकी आठवीं शताब्दीके पश्चात् किसी समय वह रची गई है।
तथा प्रवचन सारोद्धार वृत्ति (वि० सं० ११४८) में तथा च तत्त्वार्थ मूल टीकायां हरिभद्रसूरिः' करके हरिभद्रीय टीकाका उल्लेख पाया जाता है अतः इससे पहले उसका रचा जाना सिद्ध होता है । यशोभद्र और उनके शिष्य
हरिभद्रने सभाष्य तत्त्वार्थ सूत्र के ५॥ अध्यायोंपर ही वृत्ति रची है। शेष अध्यायोंपर वृत्ति यशोभद्र और उनके किसी अज्ञात नाम शिष्यने रची है। यह बात यशोभद्रसूरिके शिष्यके वचनोंसे स्पष्ट है यह हम ऊपर बतला आये हैं। यशोभद्रने भी हरिभद्रका ही अनुसरण करते हुए उसी शैलीमें अपनी वृत्ति रची है। साधारण रीतिसे देखनेपर यह प्रतीत नहीं होता कि शेष वृत्तिके रचयिता कोई भिन्न व्यक्ति हैं । यशोभद्रने भी सिद्धसेनकी तत्त्वार्थ वृत्तिका ही अनुसरण विशेष रूपसे किया है और बहुतसे स्थलोंको शब्दशः ज्यों का त्यों अपना लिया १. जै० सा० सं०, वर्ष १, अंक १ ।