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३७६ : जेनसाहित्यका इतिहास
है । हरिभद्रकृत ५ ।। अध्यायोंकी वृत्तिका जितना परिमाण (२७४ पृष्ठ) हँ । लगभग उतना ही परिमाण (२६२ पृष्ठ) यशोभद्रकी ४ || अध्यायोंकी वृत्तिका है । और उद्धृत वाक्योंकी संख्या तो हरिभद्रकी वृत्तिसे तिगुनी है । सिद्धसेनकी वृत्ति में आगत एक भी उद्धरणको यशोभद्रने नहीं छोड़ा है ।
श्वेताम्बर परम्परामें यशोभद्र' नामके भी अनेक आचार्य हुए हैं । एक यशोभद्र तो श्रुतकेवली भद्रबाहुके गुरु थे । दूसरे यशोभद्र साडेरक गच्छके थे । उनका स्वर्गवास वि० सं० १०२९ में हुआ था। तीसरे यशोभद्र स्थानक प्रकरणके रचयिता प्रद्युम्नसूरिके गुरु थे । यह पूर्णतल्ल गच्छके थे । चौथे यशोभद्र वृहद्गच्छके सर्वदेवसूरिके शिष्य थे । पाँचवें यशोभद्र राजगच्छके धर्मघोषसूरिके शिष्य थे । छठे यशोभद्र चन्द्रगच्छ में हुए । इसमेंसे प्रस्तुत यशोभद्र कौनसे हैं, यह अज्ञात है । एक यशोभद्रने हरिभद्रके षोडषक प्रकरणके ऊपर वृत्ति रची है । किन्तु प्रस्तुत यशोभद्र के साथ उनका ऐक्य भी विचारणीय है । यशोभद्रके जिस शिष्यने अन्तिम सूत्र पर वृत्ति रची उसका तो नाम भी ज्ञात नहीं है । अतः उसके सम्बन्धमें कुछ कह सकना शक्य नहीं है । उसकी वृत्ति भी उसके गुरुकी तरह सिद्धसेनकी वृत्तिका संक्षेपीकरण मात्र है ।
श्रुतसागर सूरि
जैन परम्परामें ग्रन्थकार प्रायः संसारसे विरक्त मुनिजन ही विशेष हुए हैं । किन्तु उत्तरकालमें भट्टारकसम्प्रदायका प्रवर्तन होने पर भट्टारकोंमें भी अनेक विशिष्ट ग्रन्थकार हुए हैं । उनमें श्रुतसागर सूरिका नाम उल्लेखनीय है; क्योंकि उन्होंने अन्य अनेक छोटी बड़ी रचनाओंके साथ तत्त्वार्थ सूत्र पर भी एक श्रुतसागरी नामकी वृत्ति रची है । यह वृत्ति अनेक दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण है और अपने रचयिताकी विद्वत्ताका ख्यापन करती है ।
श्रुतसागरने अपनी रचनाओंके अन्तमें अपने गुरू आदिका नाम दिया है । वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणमें हुए हैं । उनके गुरूका नाम विद्यानन्दि था । विद्यानन्दिके गुरूका नाम देवेन्द्रकीति और देवेन्द्रकीर्तिके गुरुका नाम पद्मनन्दि था । ये बलात्कार गणकी सूरत शाखाके भट्टारक थे । विद्यानन्दिके पश्चात् मल्लिभूषण भट्टारक हुए। इन मल्लिभूषणके उपदेशसे श्रुतसागरने यशोधरचरित, मुकुटसप्तमी कथा और पत्यविधान कथा आदिकी रचना की थी ।
श्रुतसागरने अपनेको देशव्रती, ब्रह्मचारी या वर्णी लिखा है । तथा नवनवति
१. जैन० सा० सं० इ० (गु०) के परिशिष्टमें 'यशोभद्र' ।