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________________ ३७४ : जैनसाहित्यका इतिहास 'कालो सहाव णियई आदि गाथा भी उद्धृत कीगई है, सिद्धसेनीय टीकामें यह चर्चा नहीं है। ३. सूत्र १-४ के भाष्यका व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'औपशमिकादिभावयुक्ता.' विशेषणसे निःस्वभाव जीववादका व्यवच्छेद किया है क्योंकि किन्हींका कहना है कि 'निःस्वभावाः जीवाः संवृतः सन्तः' । दूसरों का कहना है 'अकार्याकरणक स्वभावाः' यह भी सिद्धसेनीय टीकामें नहीं है। ४. सूत्र १-३१ के भाष्यमें 'भगवतो केवलिनो "अनुसमयमुपयोगो भवति' ऐसा एक वाक्य है। सिद्धसेन और हरिभद्रने 'अनु समयं' की व्युत्पत्ति तो समान ही की है । यथा-'अनुगतः-अव्यवहितः समयः-अत्यन्ताविभागःकालो यत्र कालसन्ताने स कालसन्तानोऽनुसमयः तमनुसमयं' किन्तु दोनोंके अर्थ में आकाश पातालका अन्तर है। उसका कारण यह है कि श्वेताम्बर परम्परामें आगमिक पक्ष केवलीके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग एक साथ नहीं मानता, क्रमसे मानता है । सिद्धसेन कट्टर आगमिक पक्षी थे अतः उन्होंने 'अनुसमयं का अर्थ किया है'वारंवारेणोपयोगो भवतीति यावत् । एकस्मिन् समये केवलज्ञानोपयोगे वृत्ते ततोऽन्यस्मिन् केवलदर्शनोपयोग इति सर्वकालमवसेयम् ।' अर्थात् केवलीके वारंवार उपयोग होता है। एक समयमें केवल ज्ञानोपयोग होनेपर दूसरे समयमें केवल दर्शनोपयोग होता है इस प्रकार सदा होता रहता है।' किन्तु 'अनुसमयं' का यथार्थ अर्थ तो प्रति समय है । हरिभद्रने अपनी टीकामें यही अर्थ किया है। यथा-'प्रतिसमयमित्यर्थः, उपयोगः स्वग्रहण व्यापारी भवति ततः सदा केवलोपयोगद्वयभावात्। अतः हरिभद्र के अनुसार केवली के सदा दोनों उपयोग रहते हैं। इस तरह की विशेषताओंके कारण लघुवृत्तिके रचयिता हरिभद्र साधारण विद्वान प्रतीत नहीं होते। उनकी शैलीमें भी अपनी विशेषता है । उदाहरण तथा तुलनाके लिये सिद्धसेनीय तथा हरिभद्रीय टीकास एक उद्ध रण नीचे दिया जाता है-'अनादौ संसार इति च सृष्टि निरस्यति । न हि कश्चिज्जगतः स्रष्टा कर्ता समस्ति पुरुषः, यथैव हि तेन केनचित् स्रष्टाः प्राण्यादि (?) मन्तस्तथान्येऽपि प्राणिनः । कञन्तराभ्युपगमे चानवस्था।"नापि किञ्चित् सर्गे जगतः स्रष्टुः प्रयोजनमस्ति प्रेक्षापूर्वकारिणः । क्रीड़ाद्यर्थमिति चेत् कुतः सर्गशक्तिः ? प्राकृतत्वात् । सुखितदुखितदेवनारकसत्त्वोत्पादने चाकस्मिकः पक्षपातो द्वेषिता चेति ।'सि० टी०, भा० १, पृ० ३७ । 'तस्मिन्ननादौ संसारे अनेन सृष्टिवादव्यवच्छेदमाह-स्रष्टारमन्तरेण तदनुपपत्तेः, सति चास्मिन् स केन स्रष्टः ? तदपराभ्युपगमेनवस्था, अनभ्युपगमे
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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