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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३७३ है। मुनि श्रीजम्बूविजयजीने हरिभद्र वृत्ति और सिद्धसेनीय वृत्ति दोनोंकी तुलना की है और बतलाया है कि हरिभद्रने सिद्धसेनीय वृत्तिका अवलम्बन लिया है। अगर यह बात ठीक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनकी वृत्तिके बाद ही हरिभद्रीय वृत्तिकी रचना हुई है।'
इससे प्रकट है कि उक्त टीकाके रचयिता हरिभद्रका व्यक्तित्व और समय अभी तक अनिर्णीत ही है।
हमने हरिभद्रीय वृत्ति और सिद्धसेनीय वृत्तिका मिलान करके देखा तो बराबर यह प्रमाणित हुआ कि एक के रचयिताने दूसरेकी कृतिको न केवल देखा है किन्तु उसका अनुसरण भी किया है और ऐसा करने वाला व्यक्ति हरिभद्र ही है, सिद्धसेन नहीं । किन्तु हरिभद्रने सिद्धसेनका अन्धानुकरण नहीं किया, उनके अनुकरणमें भी उनके व्यक्तित्वकी छाप सुस्पष्ट प्रतीत होती है । तथा उनकी टीकामें कई एक बातें ऐसी भी हैं जो टीकाकारकी दार्शनिकता तथा स्वतंत्र व्यक्तित्वकी परिचायक हैं । नीचे ऐसी कुछ बातें दी जाती हैं।
१. सूत्र १-३ की टीकामें भाष्यमें आगत 'अनादो संसार' पदका व्याख्यान करते हुए दोनों टीकाकारोंने सृष्टि कर्तृत्वका खण्डन किया है। सिद्धसेनने उसी प्रसंगमें सिद्धि विनिश्चय गत सृष्टि परीक्षाको देखनेकी बात लिखी है किन्तु हरिभद्रने 'निर्णीतमेतदन्यत्र' अन्य ग्रन्थमें इसका निर्णय किया है, इतना मात्र लिखा है। ऐसा लिखना लेखकके व्यक्तित्वका परिचायक है। इससे यह भी आशय निकलता है कि टीकाकारने स्वयं किसी अन्य ग्रन्थमें उक्त विषयका विचार किया है । ऐसे प्रसंग दो एक और भी मिलते हैं । यथा-सूत्र १-१९ की टीकामें लिखा है-'नायनरश्मिविधानं मनोनिर्गमनं चान्यत्र निराकृतमिति नेहाभिधीयते' । अर्थात् आँखोंसे किरणें निकलती हैं और मन बाहर जाता है इसका खण्डन अन्यत्र किया है इस लिये यहाँ नहीं कहते ।' यदि टीकाकारके इन उल्लेखोंका आशय स्वयं अपने द्वारा अन्यत्र लिखे जाने से है तब तो ऐसा लिखने वाले हरिभद्र याकिनी सूनु ही हो सकते हैं । किन्तु उनके उपलब्ध ग्रन्थों में हमें उक्त चर्चाएँ देखने को नहीं मिल सकी !
२. सूत्र १-३ की ही टीकामें यह शंका की गई है कि जब सभी जीवोंके साथ कर्मका सम्बन्ध अनादि है तो जीवोंको कालभेदसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति क्यों होती है ? इसके समाधानमें कहा गया है कि सम्यग्दर्शनका लाभ विशिष्टकाल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषकार रूप सामग्रीसे होता है और वह सामग्री प्रत्येक जीवकी भिन्न-भिन्न होती है। इसी प्रसंगमें सिद्धसेन दिवाकरके सन्मति तकसे १. आत्मानन्द प्रकाश, वर्ष ४५, अंक १०, पृ० १९३ ।