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३७२ : जेनसाहित्यका इतिहास
'सूरि यशोभद्रस्य (हि) शिष्येण समुदृता स्वबोधार्थम् । तत्त्वार्थस्य हि टीका जडकायार्जनाघृता यात्यां नृढ़ता ॥१॥
(र्यर्जुनोद्धृताऽन्त्यार्धा )। हरिभद्राचार्येणारब्धा विवृतार्धषडध्यायाश्च ।
पूज्य पुनरुद्धृतेयं तत्त्वार्थाद्धस्य टीकान्त्ये ॥२॥ ति, . "एतदुक्तं भवति हरिभद्राचार्येणार्द्धषण्णामध्यायानामाद्यानां टीका कृता, भगवता तु गन्धहस्तिना सिद्धसेनेन नव्या कृता तत्त्वार्थ टीका, नव्यर्वादस्थानाकुला, तस्या एव शेषमुद्धृतञ्चाचार्येण (शेषं मया) स्वबोधार्थ, साऽत्यन्तगुर्वी च डुपडुपिका निष्पन्नेत्यलं प्रसङ्गेन ।'-(हरि० टी०, पृ० ५२१)।
'अर्थात् हरिभद्राचार्यने आदिके साढ़े पांच अध्यायोंकी टीका बनाई । भगवान गन्धहस्ती सिद्धसेनने तत्त्वार्थकी नई टीका रची जो नये वादोंसे भरपूर है। उसीको उद्धत करके आचार्य यशोभद्र ने और शेष मैंने अपने बोधके लिये वृत्ति रची। सिद्धसेनकी टीका अत्यन्त गुर्वी है सो उसमें अवतरण करनेके लिये यह डुपडुपिका टीका निष्पन्न हुई। ___ अब प्रश्न यह है कि इस टीकाके आद्य रचयिता हरिभद्र कौन हैं और वे कब
श्वेताम्बर परम्परामें हरिभद्र नामके अनेक ग्रन्थकार हुए है। किन्तु उन सबमें मूर्धन्य याकिनी सूनु भवविरहांक हरिभद्र ही हैं। और परम्परासे नन्हें ही इस लघुवृत्तिका रचयिता माना जाता है। ऊपर जो इस टीकाके अन्तिम भागसे एक उद्धरण दिया है उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है क्योंकि उसमें सिद्धसेनकृत टीकाको 'नव्या' कहा है।
श्री आत्मानन्द जन्म शताब्दी स्मारक ग्रन्थमालाके प्रथम पुष्पके रूपमें तत्त्वार्थ सूत्रका पं० सुखलालजी कृत जो हिन्दी विवेचन प्रकाशित हुआ है उसकी प्रस्तावनामें (पृ. ४७-५४) पंडितजीने भी यशोभद्र सूरिके शिष्यके ऊपर उद्धृत वचनोंके आधारपर विस्तारसे प्रकाश डालकर यही नतीजा निकला है कि वे हरिभद्र याकिनी सूनु ही हो सकते हैं, दूसरे नहीं । किन्तु जैन संस्कृति संशोधन मंडल वाराणसीसे प्रकाशित तत्त्वार्थ सूत्र विवेचनके संस्करणकी भूमिकामें (१० ४२-४३) पंडितजीने उक्त लम्बी चर्चाको स्थान न देकर केवल इतना ही लिखा है'श्वेताम्बर परम्परामें हरिभद्र नामके कई आचार्य हो गये हैं जिनमेंसे याकिनीसूनु रूपसे प्रसिद्ध सैकड़ों ग्रन्थोंके रचयिता आ० हरिभद्र ही इस छोटी वृत्तिके रचयिता माने जाते हैं। परन्तु इस बारेमें कोई असंदिग्ध प्रमाण अभी हमारे सामने नहीं