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________________ ३६० : जेनसाहित्यका इतिहास अमृतचन्द्रकी टीकाके सम्मुख होते हुए भी जयसेनकी व्याख्यान पद्धति उससे भिन्न है । अमृतचन्द्रकी दोनों टीकाओंके नाम तत्त्वदीपिका और तत्त्वप्रदीपिका हैं और जयसेनाचार्यकी दोनों टीकाओंका नाम तात्पर्यवृत्ति है। ये नाम भेद भी दोनोंकी व्याख्या पद्धतिके भेदको बतलाते हैं । जयसेन मंगल गाथाओंका व्याख्यान करके ग्रन्थके मुख्य अधिकारों और अवान्तर अधिकारोंकी गाथा संख्या पूर्वक विषय विभाग बतला देते हैं और साथमें अमृतचन्द्रको मान्य गाथा संख्याका भी निर्देश कर देते हैं। यथा, पञ्चास्तिकायकी आद्य दो गाथाओंका व्याख्यान करके उन्होंने अपने 'उपोडात' में बतलाया है कि प्रथम महाधिकारमें पंचास्तिकाय और छह द्रव्योंका वर्णन है तथा उसमें १११ गाथाएं हैं और अमृतचन्द्रकी टीकाके अभिप्रायानुसार १०३ गाथाएँ हैं। उसके आगे दूसरे महाधिकारमें सात तत्त्वों और नौ पदार्थोंका व्याख्यान है उसमें ५० गाथाएं है और अमृतचन्द्रकी टीकाके अनुसार ४८ गाथाएँ हैं । तथा तीसरे अधिकारमें मोक्षमार्गका कथन है। उसमें २० गाथाएँ हैं । इसी तरह आगे प्रत्येक महाधिकारके अवान्तर अधिकारोंका कथन किया है। उसके पश्चात् प्रत्येक गाथाका शब्दशः व्याख्यान किया है शब्दशः व्याख्यानके पश्चात् जहाँ आवश्यक होता है वहाँ वह 'तथाहि' आदि लिखकर विशेष कथन करते हैं और 'अत्राह शिष्यः' लिखकर शंकाका उत्थान तथा 'परिहारमाह' लिखकर उसका समाधान भी करते हैं । यही पद्धति प्रवचनसारकी टीकामें भी अपनाई गई है। दोनों टीकाओंमें अनेक प्रासंगिक चर्चाएं भी यथास्थान की गई हैं। यथा, पञ्चास्तिकायमें गाथा १४ की व्याख्यामें सप्तभंगीकी, गाथा २७ की व्याख्यामें जीवकी, गाथा २९ की व्याख्यामें सर्वज्ञताकी चर्चा की है। इसी तरह प्रवचनसारमें भी पृ० २८ पर केवलि भुक्तिकी कुछ चर्चाएं की गई है। दूसरे, जयसेनजी अपनी टीकाओंमें ग्रन्थान्तरोंसे बहुतसे उद्धरण देते हैं। सबसे अधिक उद्धरण पंचास्तिकायकी टीकामें है। इसमें कुछ ग्रन्थोंका नामोल्लेख' भी किया है और ग्रन्थकारोंमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव और पूज्यपादका नामोल्लेख किया है। जयसेनके सम्मुख प्रभाचन्द्रकृत वृत्तियाँ भी थीं ऐसा बराबर प्रतीत होता है। १. द्रव्यसंग्रह ( पृ० ६-७), चरित्रसार और सर्वार्थसिद्धि टिप्पण (पृ० २१९), तत्त्वानुशासन (पृ० २१२, २५३ ), उपासकाध्ययन, आचार, आराधना, त्रिशष्टिशलाका पुरुष पुराण, त्रिलोकसार और लोकविभाग (पृ० २५४) गोम्मटशास्त्र ( पृ० १८२), मोक्षप्राभृत (पृ० २११ )।-पञ्चा० टी० । २. पञ्चास्ति० पृ० २११ । ३. वही, पृ० २२० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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