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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३५९ इसमें चार अध्याय हैं और क्रमसे २० +४५ + ६६ + ६५ = १९६ सूत्र हैं। इसकी दशा भी अर्हत्प्रवचन जैसी ही है। अर्हत्प्रवचनके तीसरे अध्यायके प्रारम्भमें त्रिविधः कालः ॥१॥ षड्विधः काल समयः ॥२॥ ये दो सूत्र हैं । शा० सा० समु. का प्रारम्भिक सूत्र हैं-'अथ त्रिविधः कालो द्विविधो षड्विधो वा।' उसके अनेक सूत्र 'अर्हत्प्रवचन से मिलते हैं । दूसरे अध्यायमें तीनों लोकोंका संख्यात्मक वर्णन है। तीसरे और चौथे अध्यायमें बिना किसी क्रमके विविध विषयोंका संख्यात्मक कथन है यथा-'मौन समय सात हैं । श्रावक धर्म चार प्रकारका है । जैनाश्रम भी चार प्रकारका है, ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके है । आर्य कर्म छ हैं । पूजाके दस प्रकार है । क्षत्रियके दो प्रकार हैं । भिक्षु चार प्रकारके हैं । मुनि तीन प्रकारके हैं।' ___ इस तरह केवल भेदोंकी संख्या मात्र बतलाई है । उनके नाम नहीं बतलाये हैं। इसके अन्तमें एक श्लोक' है जिसमें ग्रन्थकारने शास्रसार समुच्चयको विचित्रार्थ कहा है। सचमुचमें इसमें विचित्र अर्थोंका कथन है। तथा ग्रन्थकारने अपना नाम श्री माघनन्दि योगीन्द्र बतलाया है और अपनेको सिद्धान्तरूपी समुद्रके लिये चन्द्रमा कहा है। स्व. श्री युत प्रेमीजीने लिखा है कि कर्नाटक कवि चरित्रके अनुसार एक माघनन्दिका समय वि० सं० १३१७ है और उन्होंने शास्त्रसार समुच्चयपर एक कनड़ी टीका भी लिखी है । और माघनन्दि श्रावकाचारके कर्ता भी यही हैं । इससे ज्ञात होता है कि शास्त्रसार समुच्चयके कर्ता माघनन्दि इनसे पहले हुए हैं । अतः उनका समय विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीसे पहले होना चाहिये । टीकाकार जयसेन कुन्दकुन्दके समयसार, पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसारके टीकाकार आचार्य जयसेनके सम्बन्धमें समयसारकी टीकाके प्रसंगसे पहले लिख आये हैं। इन्होंने पंचास्तिकायकी टीका पहले रची, फिर प्रवचनसारकी टीका रची । शायद इसीसे पंचास्तिकायकी टीकाके आरम्भमें प्रथम गाथाका व्याख्यान करके उन्होंने मंगल, की विस्तारसे चर्चाकी है और ग्रन्थान्तरोंसे तत्सम्बन्धी अनेक गाथाएँ और श्लोक प्रमाणरूपसे उद्धृत किये हैं। जिनके अनुसन्धानसे प्रतीत होता है कि जयसेनने धवला टीका तथा आप्तपरीक्षाका उसमें विशेष रूपसे उपयोग किया है। १. 'श्री माघनन्दियोगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधिचन्द्रमाः । अचीरचद्विचित्रार्थशास्त्र सारसमुच्चयम् ॥१॥' २. जै० सा० इ०, पृ० ४१५-१६ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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