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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३६१ ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह टीका
पीछे अध्यात्म प्रकरणमें परमात्म प्रकाशकी वृत्तिके प्रसंगसे ब्रह्मदेवजीकी शैली तथा समयादिकी चर्चा कर आये हैं । उन्हीं ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह टीका भी है । ब्रह्मदेवजी जयसेनकी शैलीसे प्रभावित हैं यह भी पहले लिख आये हैं। फिर भी उनकी अपनी एक विशेषता है और उनकी उस विशेषताके दर्शन द्रव्यसंग्रहकी टीकामें स्पष्ट रूपसे होते हैं। वह केवल गाथाका शाब्दिक व्याख्यान ही नहीं करते, बल्कि उसके पश्चात् 'तथाहि' या 'इतो विस्तरः' आदि लिखकर इसका विशेष व्याख्यान भी करते हैं और उसमें प्रकृत चर्चासे सम्बद्ध विषयका पांडित्यपूर्ण विवेचन करते हैं। नीचे ऐसे विवेचनोंका कुछ आभास कराया जाता है-गाथा ५ में जैन आगमिक परम्पराके अनुसार मति श्रुतज्ञानको परोक्ष कहा है। किन्तु टीकामें उन्हें परोक्ष अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है । 'अत्राह शिष्यः' करके उसपर यह शंकाकी गई है कि तत्त्वार्थसूत्र में तो मतिश्रुतको परोक्ष कहा है आपने प्रत्यक्ष कैसे कहा । 'परिहारमाह' लिखकर उसका समाधान करते हुए कहा है कि तत्त्वार्थसूत्रमें उत्सर्ग कथन है और यह अपवाद कथन है । जिस मतिज्ञानको तत्त्वार्थमें परोक्ष कहा है तक शास्त्रमें उसे ही सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है ।
यह कथन अकलंकदेवकी उक्तिको लक्ष्यमें रखकर किया है। अकलंकदेवने ही अपने लघीयस्त्रय आदि ग्रन्थोंमें इन्द्रियजन्य ज्ञानको व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा है।
इसी तरह गाथा ४४ की व्याख्यामें लिखा है- 'एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं व्याख्यातम् अत ऊर्ध्वं सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते ।' अर्थात् 'सत्तासामान्यके अवलोकनको दर्शन कहते हैं' दर्शनकी यह व्याख्या तो तर्कशास्त्रके अभिप्रायसे की है । आगे सिद्धान्तके अभिप्रायसे दर्शनका स्वरूप कहते हैं।'
बीरसेन स्वामीकी धवला और जयधवला टीकाओंके प्रकाशमें आनेसे पूर्व दर्शनका सिद्धान्ताभिमत स्वरूप द्रव्य संग्रहकी ब्रह्मदेव रचित टीकामें ही देखा जाता था। उनके प्रकाशमें आने पर यह ज्ञात हुआ कि ब्रह्मदेवने उक्त स्वरूप धवला-जयधवला टीकाओंके आधार पर लिखा है। किन्तु ब्रह्मदेवने सिद्धान्त ग्रन्थोंका ठोस अनुगम किया था ऐसा प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उन्होंने गाथा १३ की टीकामें 'गुणजीवा पज्जति' आदि गाथा को-धवल, जयधवल और महाधवल नामक तीन सिद्धान्त ग्रन्थोंका बीजपद कहा है। किन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है । अस्तु,