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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३५५ नरेन्द्रसेन वीरसेनके समयमें वर्तमान थे। और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत. जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिकसे अधिक ५० वर्ष पश्चात् वीरसेनका समय मानना अनुचित नहीं है। अतः नरेन्द्रसेनको विक्रमको बारहवीं शताब्दीके द्वितीय चरणका विद्वान मानना उचित है । उनके ग्रन्थका तुलनात्मक दृष्टिसे अनुशीलन करनेसे भी यही समय समचित प्रतीत होता है। १. अमृतचन्द्रके तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिली यह बात दोनों ग्रन्थोंके नाम तथा अन्तः परीक्षणसे स्पष्ट है । नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने तो अपने धर्मरत्नाकरमें अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धयुपायके अनेक पद्य उद्धृत किये हैं । नरेन्द्रसेनने ऐसा तो नहीं किया। किन्तु अपने सिद्धान्तसारमें प्रकारान्तरसे तत्वार्थसारको अपना लिया है। • २. अमितगतिके श्रावकाचारका प्रभाव सिद्धान्तसार पर है यह हम पीछे एक उदाहरण देकर बतला आये हैं । ऐसे उदाहरण अनेक हैं । सि० सा० के चौथे अध्यायमें जो निदानके प्रशस्त और अप्रशस्त भेदोंका कथन किया है वह अमितगतिका ही अक्षरशः ऋणी है । अमि० श्रा०, अ० ७ के श्लोक २०-२२ का तथा सि० सा० अ० ४ के श्लो० २४६.५० मिलान करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। अमितगति माथुरसंघके आचार्य थे। काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, वागड़ और लाटवागड़ यह चार प्रसिद्ध गच्छ थे । ऐसा सुरेन्द्रकीतिरचित पट्टावली में लिखा है। अतः अमितगति और नरेन्द्रसेन दोनों काष्ठासंघी थे। अमितगतिने अपना सुभाषितरत्न संदोह वि० सं० १०५० में रचा था । अर्थात् वह धर्मरत्नाकरके रचयिता जयसेनके समकालीन थे। ३. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा रचित गोम्मटसार तथा त्रिलोकसारका भी उपयोग नरेन्द्रसेनने अपनी रचनामें किया प्रतीत होता है। उनके जीवतत्त्व विषयक वर्णनमें अनेक श्लोक उक्त ग्रन्थोंके गाथासूत्रोंके अनुवाद मात्र प्रतीत होते हैं । यथा सोहम्मो वरदेवी सलोगवाला य दक्षिणमरिंदा । लोयंतिय सव्वट्ठा तदो चुदा णिव्वुदि जंति ।।५४८॥ १. 'काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षिती ॥' 'श्री नन्दितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः । लाड़बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥'-जै० सा० इ०, पृ० २७७ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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