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३५६ : जैनसाहित्यका इतिहास
तिरियगदी हिंतो भवणतियादो य णिग्गया जीवा ।
ण लहंते ते पर्दाव तेवट्टिसलागपुरिसाणं ॥ ५४९ || - त्रि० स०
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शक्राग्रमहिषी
दक्षिणेन्द्राश्च लौकान्ताश्च्युता निवृतिगामिनः ॥१३७॥ आज्योतिष्काश्च ये देवास्तेऽनन्तरभवे न हि ।
शलाकापुरुषा ये तु केचिन्निवृतिगामिनः ॥ १३८ ॥ - सि० सा० सं० | इसीके आगे नरेन्द्रसेनने 'यदित्थमनुत्रादेन' लिखकर स्पष्ट भी कर दिया है कि उनका कुछ कथन अन्य ग्रन्थोंका अनुवाद रूप है ।
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शक्रलोकपालामराश्च ते ।
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती भी जयसेन और अमितगतिके लगभग गुरू समकालीन थे ।
४. सिद्धान्तसार संग्रहके चतुर्थ अध्यायमें केवली भुक्ति और स्त्रीमुक्तिका खण्डन किया गया है । जहाँ तक हम जानते हैं दि० जैन परापरामें प्रभाचन्द्राचार्य ने अपने प्रमेयकमल मार्तण्डमें इन दोनोंका खण्डन किया है और उसीका अनुसरण नरेन्द्रसेनने भी किया है। प्रभाचन्द्रका समय विक्रमकी ११वीं शतीके उत्तरार्धसे बारहवीं शती के पूर्वार्ध तक ( वि० सं० १०३७ से ११२२ तक) निर्धारित किया है । अतः नरेन्द्रसेन प्रभाचन्द्र के पश्चात् तत्काल ही हुए हैं। उनकी प्रतिष्ठातिलक नामक एक अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध है ।
तीन अन्य सूत्रग्रन्थ
तत्त्वार्थ सूत्रकी रचनाने जैन साहित्यको जितना प्रभावित किया इतना किसी अन्य ग्रन्थने उसे प्रभावित नहीं किया । उसके ऊपर जो विविध व्याख्या ग्रन्थ रचे गये उन्होंने तो जैन साहित्यको समृद्ध किया ही, किन्तु उत्तरकालमें उससे प्रभावित होकर कुछ ग्रन्थकारोंने छोटे-छोटे सूत्र ग्रन्थ भी रचे । ऐसे तीन सूत्र ग्रन्थ हमारे सामने मुद्रित रूपमें वर्तमान हैं । ये तीनों ही तत्त्वार्थ सूत्रके अनुकरण पर रचे गये हैं । इनमेंसे एकका तो नाम भी तत्त्वार्थ सूत्र ही है । इसे लघु तत्त्वार्थ सूत्र कहना उचित होगा क्योंकि यह उसीका संक्षिप्त रूप है । इसके रचयिताका नाम पुष्पिकाओंमें बृहत् प्रभाचन्द्र दिया गया हैं ।
१. 'तत्त्वार्थ सूत्र - इस वृहत्प्रभाचन्द्र विरचित तत्त्वार्थ सूत्रमें भी दस
१. वृहत्प्रभाचन्द्र विरचित इस तत्त्वार्थ सूत्रको खोजकर प्रकाशमें लानेका श्रेय जुगलकिशोरजी मुख्तारको हैं । उन्होंने वीर सेवा मन्दिर दिल्लीसे हिन्दी अनुवादके साथ उसे सम्पादित और प्रकाशित किया है ।