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________________ ३५४ : जैनसाहित्यका इतिहास यथास्थान अच्छी तरह से किया गया है और इस प्रकार इसे सार्थक नाम सिद्धान्तसार संग्रह दिया है। ___ इस ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी' है। उससे ज्ञात होता है कि लाट वागड़ संघमें धर्मसेन नामक दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमसे शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए। और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन आचार्य हुए। उन्होंने इस ग्रन्थ को रचा। श्री जयसेन सूरिने धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ रचा है जो अभी प्रकाशित हुआ है। इसकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि वह भी लाटबागड़ संघके थे। तथा उन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है-धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेन । यह गुरु परम्परा नरेन्द्रसेनके द्वारा प्रदत्त गुरु परम्परा से बिल्कुल मिलती है। अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता श्रीजयसेनके ही वंशज थे। जयसेनने धर्मरत्नाकरकी प्रशस्तिके अन्तमें उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया है । जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्यमें ब्रह्मसेन, वीरसेन और गुणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानों पर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्ध प्रसाद' कहा है। अतः १. 'श्री धर्मसेनोऽजनि तत्र संघ॥ तस्माच्छी शान्तिषेणः समजनि""... श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत् स तस्मात् ॥९०॥ श्रीभावसेनस्ततः ॥९१॥ ख्यात स्ततः श्रीजयसेन नामा"""""पढें श्रीजयसेननाम सुगुरोः श्रीब्रह्मसेनोऽजनि ॥९२॥""तस्मादजायत गुणी कवि वीरसेनः ॥९३॥ श्रीवीरसेनस्य गुणादिसेनो जातः सुशिष्यो गुणिनां विशेष्यः । शिष्यस्तदीयोजनि चारुचित्तः सदृष्टिचित्तोऽत्र नरेन्द्रसेनः ॥ तेनेदमागमवचो विशदं निबद्धम् ॥९५।। सि० सा० सं०, अ० १२ ।। २. ...श्रीमान् सोऽभून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणीन्द्रः ॥३॥"तेभ्यः श्रीशान्ति षेणः समजनि सुगुरुः पापधूलीसमीरः ॥४॥"श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत् स तस्मात् ॥५॥ श्रीभावसेनस्ततः ॥६॥ ततो जातः शिष्यः 'जयसेनाख्य इह सः ।'-जै० म०प्र० सं०, भा० १, पृ० ४ । ३. 'वाणेन्द्रियव्योमसोममिते संवत्सरे शुभे ।। ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यातः सकलीकरहाटके ॥'-भ० स०, पृ० २५० । ४. 'योऽभूच्छीवीरसेनो विबुधजनकृताराधनोऽगाववृत्तिः । तस्माल्लब्धप्रसादे मयि भवतु च मे बुद्धिवृद्धी विशुद्धिः ॥' -सि० सा० सं०, पृ० २३९ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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