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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३३५ पञ्चसंग्रहके अन्तर्गत जीवसमास नामक प्रकरणका साहाय्य लिया गया है। इस प्रकरणमें चारों गतियोंके जीवोंका मृत्युके पश्चात् कहाँ-कहाँ जन्म हो सकता है, इसका कथन बहुत विस्तारसे श्लो० १४६ से १७५ तक किया गया है । यह सब कथन अन्यत्र एक साथ नहीं पाया जाता। इस अधिकारमें त० सू० के दूसरे तीसरे और चौथे अध्यायका विषय है । दूसरे अजीवाधिकारमें तत्वार्थसूत्र और उसको सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थवातिक नामक टीकाओंके आधारपर पांच द्रव्यों का वर्णन है। इस प्रकरणमें कुन्दकुन्दके पश्चास्तिकायकी कई गाथाओंको भी संस्कृतमें निबद्ध किया गया है। इस अधिकारमें त० सू० के पांचवे अध्यायका विषय है। तीसरे आस्रवाधिकारमें त० सू० के छठे और सातवें अध्यायका वर्णन है। त० सू० के छठे अध्यायमें ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंका आस्रव जिन कार्योंके करनेसे होता है उन कार्योंको बतलाया है । और अकलंक देवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें उन सूत्रोंकी व्याख्यामें प्रत्येक कर्मक आस्रवके कुछ अन्य कारणोंका भी निर्देश किया है। अमृतचन्द्रने तत्त्वाथसारमें उन सब कारणोंका भी संग्रह किया है। तथा पुण्यास्रवके कारण व्रतोंका वर्णन करनेके पश्चात् पुण्य और पापके भेदको स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह भी लिख दिया है कि निश्चयनयस पुण्य और पापमें कोई अन्तर नहीं है क्योंकि दोनों ही संसारके कारण हैं । चौथे बन्धाधिकारमें त० सू० के आठवें अधिकारका, पांचवे संवराधिकार और छटे निर्जराधिकारमें त० सू० के नौवें अधिकारका और सातवें मोक्षाधिकारमें त० सू० के दसवें अध्यायके विषयका कथन है। तत्त्वार्थवातिकके अन्तमें 'उक्तञ्च' करके जो श्लोक पाये जाते हैं उनमेंसे एक अन्तिम श्लोकको छोड़कर शेष बत्तीस श्लोक मामूली व्यतिक्रमके साथ तत्वार्थसारमें सम्मिलित कर लिये गये हैं। अमृतचन्द्राचार्य अध्यात्मवादी थे, अतः उन्होंने तत्त्वार्थसारके अन्तमें उपसंहाररूपसे निश्चयनय और व्यवहारनयसे मोक्षमार्ग कथन करते हुए कहा हैमोक्षमार्ग निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है । उसमें से निश्चयमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है। शुद्ध स्वात्माका श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा तो निश्चय मोक्षमार्ग है और परात्माका श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा व्यवहार मोक्षमार्ग है। जो पर द्रव्यका श्रद्धान करता है, उसीको मानता है और उसीकी उपेक्षा करता है वह व्यवहारनयसे मुनि है । और स्वात्मद्रव्यको जानता है, उसीका श्रद्धान और उपेक्षा करता है वह निश्चयसे मुनि है । आगे एक आत्मतत्त्वमें ही षट् कारकोंको घटाकर अन्तमें पुनः कहा कि व्यवहारनयसे सम्यक्त्व ज्ञान और चरित्ररूप मोक्षमार्ग है और निश्चयनयसे एक
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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