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३३४ : जैनसाहित्य का इतिहास
तत्त्व सात ही क्यों बतलाये हैं, इसका समाधान अकलंकदेवने तो 'सर्वार्षसिद्धिके अनुसार ही किया है। किन्तु अमृतचन्द्रने अध्यात्म शैलीके अनुसार सात तत्त्वोंमेंसे जीवको उपादेय, अजीवको हेय, आस्रव और बन्धको हेयके उपादानका कारण, संवर और निर्जराको हेयके हान का कारण तथा मोक्षको हेयका आत्यन्तिक हान रूप बतलाते हुए उन सातोंके कथनकी आवश्यकता बतलाई है ।
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीतिने अपने प्रमाणवातिकमें सर्वज्ञको उपाय सहित हेय और उपादेयका ज्ञाता माना है, सवका ज्ञाता नहीं माना। अकलकदेवने सिद्धिविनिश्चयमें धर्मकीर्तिके ही शब्दोंको लेकर उसका खण्डन किया है । यह हेय और हेय हेतु तथा उपादेय और उपादेय हेतुके रूपमें सात तत्त्वोंका विभाजन अमृतचन्द्रसूरिने उसीके आधारपर किया हो, ऐसा लगता है। अमृतचन्द्रने तत्त्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धिके साथ तत्त्वार्थवातिकका तो पूरा उपयोग किया ही है। विद्यानन्दके तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकका भी उपयोग किया है ! सम्यग्ज्ञानको स्वार्थ व्यवसायात्मक और श्रुतको 'अविस्पष्टार्थ तकण' रूप विद्यानन्दिने बतलाया है तदनुसार ही अमृतचन्द्रसूरिने भी बतलाया है । "नयोंके भी कई लक्षणोंमें त० श्लो० वा० का शब्दशः अनुसरण किया गया है। ___ जीवाधिकारमें संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण संज्ञा और मार्गणाओंके द्वारा किया गया है । चौदह मार्गणाओंके वर्णनमें प्राकृत १. 'अतः प्रधान-हेतुहेतुमत्फलनिदर्शनार्थत्वात्पृथुगद्देशः कृतः'--स०सि० १-४ ।
'परस्परोपश्लेषे संसारप्रवृत्तितदुपरमप्रधानकारणप्रतिपादनार्थत्वात्'--त.
वा० १-४ । २. 'उपादेयतया जीवोऽजीवो हेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपादनहेतुत्वेनास्रवः
स्मृतः ॥७॥ हेयस्यादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तितः । संवरो निर्जरा हेयहा हेतुतयोदितौ। हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः ॥८॥'
तत्वा० सा०। ३. 'तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानं'-त० श्लो० वा०, १-१०-१६ । 'सम्यग्ज्ञानं
पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः ॥१८॥'-तत्वा० सा० । ४. 'श्रुतमस्पष्टतर्कणम्'--त० श्लो० वा० १-२०-१३ । 'मतिपूर्व श्रुतं प्रोक्त
मविस्पष्टार्थतर्कणम् ॥२४॥' तत्वा० सा० । ५. 'तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नगमो नयः'-त० श्लो० वा० १-३३-१७ ।
'अर्थ संकल्पमात्रस्य ग्राहको नगमो नयः ॥४४॥'-तत्वा० सा० । 'संग्रहण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः-त० श्लो० वा०, १-३३-५८ ।-तत्वा० सा०४६ ।