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________________ ३३२ : जैनसाहित्यका इतिहास चुका है। यह कुन्दकुन्दके समयपाहुड़, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थोंके आद्य व्याख्याकार हैं। इनकी व्याख्या शैलीके सम्बन्धमें भी पीछे प्रकाश डाला जा चुका है। समय पाहुडकी तरह प्रवचनसार और पञ्चास्तिकायकी टीकाएं भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उनमें विषयका प्रतिपादन प्राञ्जल संस्कृत भाषाके द्वारा बहुत ही सुन्दर रीतिसे किया गया है। प्रवचनसारकी' टीकाका नाम 'तत्त्वदीपिका' है और-पञ्चास्तिकायकी टीकाका नाम 'तत्त्वप्रदीपिका' है। दोनों नाम सार्थक हैं। प्रवचनसार और पञ्चास्तिकायमें प्रतिपादित तत्त्वोंको प्रकाशित करनेके लिये अमृतचन्द्रकी दोनों टीकाएं दीपिका के तुल्य हैं । यह हम पहले लिख आये हैं कि अमृतचन्द्रकी टीकाओंमें मूल ग्रन्थका शब्दशः व्याख्यान नहीं है। किन्तु मूल गाथाओंका पूरा मन्तव्य उनकी टीकाओंसे सुस्पष्ट हो जाता है। जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ वे वस्तुतत्त्वका विश्लेषण भी करते हैं। यथा, प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारके प्रारम्भकी गाथाओंका व्याख्यान करते हुए उन्होंने गुण और पर्यायोंका तथा उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका निरूपण दृष्टान्त द्वारा बहुत विस्तारसे किया है । द्रव्यका विश्लेषण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने जो तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचयका निरूपण किया है वह उनकी एक ऐसी देन है जो उनसे पूर्वके साहित्यमें नहीं पाई जाती । और उसके द्वारा जो उन्होंने काल द्रव्यको अणुरूप मानने में उपपत्ति दी है वह उनके जैनतत्त्वविषयक अपूर्व पांडित्यकी परिचायक है। ऊपर लिखा है कि अमृतचन्द्रने गाथाओंका व्याख्यान शब्दशः नहीं किया । किन्तु क्वचित् शब्दशः व्याख्यान भी किया है। उदाहरणके लिये प्रव० सा० के ज्ञेयाधिकारकी गाथा ८० का व्याख्यान करते हुए गाथामें आगत 'अलिंगगहण' शब्दके बीस अर्थ किये हैं। और सभी अर्थ चमत्कार पूर्ण है और आत्मतत्त्वके रहस्यको प्रकट करते हैं। तत्त्वार्थसार किन्तु अमृतचन्द्र केवल सफल टीकाकार ही नहीं हैं, उन्होंने स्वतंत्र ग्रन्थ १. ये दोनों टीकाएँ रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईसे प्रकाशित हो चुकी है। पञ्चास्तिकायकी तत्त्वप्रदीपिका टीका हिन्दी अनुवादके साथ 'सेठी ग्रन्थ माला जौहरी बाजार बम्बईसे' प्रथमबार ही प्रकाशित हुई है । २. प्रव० सा०, पृ० १९९।। ३. तत्त्वार्थसार मूल निर्णयसागर प्रेससे प्रकाशित प्रथम गुच्छकमें प्रकाशित हुआ था। पुनः इसका दूसरा संस्करण बनारससे प्रकाशित हुआ । तथा हिन्दी अनुवादके माथ यह ग्रन्थ श्रीगणेशवर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी से प्रकाशित हुआ है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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