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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३३१ भाष्यकी प्रतिके अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्तिकी गाथाओंके आधारसे मुनि श्रीजिनविजयजीने उसका काल वि० सं० ६६६ निर्धारित किया है। किन्तु चूंकि उक्त प्रशस्ति गाथाओंमें ग्रन्थ समाप्त करनेका सूचक कोई शब्द नहीं है अतः पं० दलसुखमालवणिया उसे प्रतिलेखनका काल मानते हैं। और वे जिनभद्र गणिक्षमाश्रमणकी उत्तरावधि वि० सं० ६५० बतलाते हैं । अतः सिंहसूरने अपनी नयचक्र टीका वि० सं० ६५० के पश्चात् रची थी, यह निश्चित होता . है। किन्तु सिंहसूरकी टीकामें प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीतिका कोई उल्लेख नहीं मिलता । धर्मकीति विक्रमकी सातवीं शताब्दोके अन्तमें हुए हैं। मोटे तौर पर उनका समय ई० ६२५-६५० (वि० सं० ६८२-७०७) माना जाता है । अतः सिंहसूरको भी विक्रमकी सातवीं शताब्दीके उतरार्धका विद्वान मानना उचित होगा । सिद्धसेन गणि उनके प्रशिष्य थे । अत. सिद्धसेनका समय विक्रमकी आठवीं शताब्दीका पूर्वार्ष होना चाहिये । २. सिद्धसेन गणिने अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमें प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक बसुबन्धु और दिग्नागके साथ धर्मकीतिके प्रमाण विनिश्चयका भी उल्लेख किया है। और अकलंकदेवने भी अपने ग्रन्थोंमें धर्मकीतिका खण्डन किया है तथा अकलंक देवके तत्वार्थवार्तिक का उपयोग सिद्धसेन गणिने अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमें खूब किया है। अतः सिद्धसेन गणि न केवल धर्मकीर्ति के पश्चात् हुए हैं किन्तु अकलंक देवके भी पश्चात् हुए हैं। किन्तु उनके ग्रन्थमें हरिभद्रसूरि ( वि० सं० ७५७-८२७ ) का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होता । अतः हरिभद्रसे पूर्व उनका होना संभव है। और इस लिये उन्हें विक्रमकी आठवीं शताब्दीके पूर्वार्धका विद्वान मानना समुचित है। अमृत चन्द्र सूरि अमृत चन्द्र सूरिके सम्बन्धमें द्रव्यानुयोग विषयक प्रकरणमें प्रकाश डाला जा १. 'पंचसता इगितीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स । ता चेत्त पुण्णिमाए बुध दिण सातिम्मि णक्खत्ते ॥ रज्जे णु पालणपरे सी [लाइ चम्मि गरव दिन्दम्मि । वलभीणगरीए इमं महवि 'मि जिणभवणे ॥' २. 'गणघरवादकी प्रस्ता०, ३२ । ३. द्वादशार नयचक्र ( गा० सि० बड़ौदा ) को अंग्रेजी प्रस्ता०, पृ० ७ तथा त० सू० की पं० सुखलालजी लिखित प्रस्ता०, पृ० ४२ । ४. 'तस्मादेनः पदमेतत् बसुबन्धोरामिषगृद्धस्य गद्धस्येवाऽप्रेक्ष्यकारिणः'-सि० ग० टी०, भा॰ २, पृ० ६८ । ५. 'भिक्षुवर धर्मकीर्तिनापि विरोध उक्तः प्रमाणविनिश्चयादौ ।'..."दिग्नागेना ऽप्युक्तम्...'-वही, भा०, पृ० ३९७ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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