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________________ २२ : जेनसाहित्यका इतिहास इन सबका वर्णन करके ग्रन्थकार अपने प्रकृत विषय लोकके स्वरूप पर आते हैं । लोकके तीन भेद हैं-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोकका आकार वेत्रासनके समान, मध्य लोकका आकार खड़े किए हुए मृदंगके ऊर्ध्वभागसमान और ऊर्ध्व लोकका आकार खड़े किये हुए मृदंगके समान है (गा० १३०१३८)। आगे तीनों लोकोंका मापादि बतलाया है। और विविध प्रकारसे क्षेत्रफल तथा घनफल निकाला है। पूरा प्रकरण गणितसे सम्बद्ध है मुद्रित प्रतिके अनुसार पहले अधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और अन्तमें कुछ प्राकृत गद्य भाग है। गद्यके द्वारा लोक पर्यन्त वात वलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रोंका फल बतलाया गया है। दूसरा अधिकार नारक लोकसे सम्बद्ध है। प्रारम्भमें ही ४ गाथाओंके द्वारा ग्रन्थकारने 'तीर्थङ्करके वचनोंसे निकले हुए इस नारक प्रज्ञप्ति नामक महाधिकार के अन्तर्गत पन्द्रह अधिकारोंको गिनाया है-नारकियोंकी निवासभूमि, नारकियों की संख्या, आयुका प्रमाण, शरीरकी ऊँचाई, अवधि ज्ञानका प्रमाण, उनके गुणस्थान वगैरह, नरकोंमें उत्पन्न होने वाले प्राणी, जन्म और मरणके अन्तरकालका प्रमाण, एक समयमें उत्पन्न होने वाले और मरने वाले जीवोंका प्रमाण, नरकसे निकलने वाले जीवोंका वर्णन, नरक गतिकी आयुके बन्धक परिणामोंका कथन, नरक गतिके उत्पत्ति स्थानोंका कथन, नरकके दुःखोंका वर्णन, नरकमें सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेके कारणोंका कथन, नरकमें उत्पन्न होनेके कारणोंका कथन । इन पन्द्रह वातोंका कथन दूसरे अधिकारमें है। इस अधिकारमें ३६२ गाथाएँ हैं ४ इन्द्रवज्रा हैं और एक स्वागता है । कुल ३६७ पद्य हैं । तीसरे अधिकारमें भवनवासी देवोंका वर्णन है। इस महाधिकारके अन्तर्गत चौवीस अधिकार हैं जिनमें क्रमसे भवनवासी देवोंका निवास क्षेत्र, भवनवासी देवोंके भेद, उनके चिन्ह, भवनोंकी संख्या, इन्द्रोंका प्रमाण, इन्द्रोंके नाम, दक्षिण इन्द्र और उत्तर इन्द्र, उनमेंसे प्रत्येकके भवनका परिमाण, अल्पऋद्धि वाले महद्धिक और मध्यम ऋद्धि वाले भवनवासी देवोंके भवनोंका व्यास, वेदी; कूट, जिन मन्दिर, प्रासाद, इन्द्रोंकी विभूति, भवनवासी देवोंकी संख्या, उनकी आयुका प्रमाण, उनके शरीरकी ऊँचाईका प्रमाण, उनके अवधिज्ञानके क्षेत्रका प्रमाण उनके गुणस्थानादि, एक समयमें उत्पन्न होने वाले और मरने वाले भवनवासी देवोंका प्रमाण, भवनवासी देवोंमेंसे मरकर अन्यत्र जन्म लेने वाले जीवोंकी दशा, भवनवासी देवोंकी आयुके बन्धयोग्य परिणाम, देवोंके सुखका स्वरूप और भवनवासी देवोंमें सम्यक्त्व ग्रहणके कारणोंका कथन किया गया है । इस महाअधिकार के आदिमें जो २४ अधिकार गिनाये हैं उनमें देवोंमें सुख नामक अधिकार नहीं गिनाया है। किन्तु ग्रन्थमें इस अधिकारका कथन किया है। यथा-'एवं सुह सरूवं समत्तं'।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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