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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : २१ इस प्रकार ये कुछ मतोंका निर्देश है । मतान्तर तो और भी बहुत से हैं । उनसे प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारके सन्मुख प्रकृत विषयसे सम्बद्ध काफी साहित्य वर्तमान था, जो अब अनुपलब्ध हैं । विषय परिचय
त्रिलोक प्रज्ञप्तिका आरम्भ पाँच गाथाओंके द्वारा पंच गुरुओंकी वन्दनासे होता है, जो षट्खण्डागमके आद्य मंगलभूत पंचनमस्कार मंत्रका स्मरण करा देता है । किन्तु पञ्च नमस्कार मंत्रमें अरहन्नोंको पहले नमस्कार किया है, पीछे सिद्धोंको नमस्कार किया है । किन्तु ति० प्र० में सिद्धोंके पश्चात् अरहंतोंको नमस्कार किया है यही विशेषता है।
गा० ७ में कहा है कि शास्त्रमें मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ताका कथन पहले करना चाहिये, यह आचार्योंकी परिभाषा है । कसाय पाहुंडके चूर्णिसूत्रोंके प्रारम्भमें उपक्रम रूपसे आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकारका निर्देश किया है । धवला टीकाके आरम्भमें वीरसेनने ति० ५० में कथित उक्त छै बातोंका प्रथम कथन करनेका निर्देश किया है किन्तु प्रमाण रूपसे जो एक गाथा भी उद्धत की है वह ति० प० से भिन्न है।
उक्त मंगलादिककी चर्चा करनेके पश्चात् गा० ८८-८९ में त्रिलोक प्रज्ञप्ति के नौ अधिकारोंके नाम गिनाये हैं-सामान्य जगतका स्वरूप, नारकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यग्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिषी लोक, कल्पवासी लोक और सिद्ध लोक । ये नौ अधिकार इस ग्रन्थमें हैं । (गा० १, ८८-८९)
प्रथम अधिकारका वर्णन प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकारने कहा है कि अनन्तानन्त अलोकाकाशके बहुमध्यमें जीवादि पाँच द्रव्योंसे व्याप्त और जगश्रेणिके घन प्रमाण यह लोक है (१, ९१)। चूंकि इसमें लोकका प्रमाण जगश्रेणिका घन कहा है अतः जगश्रेणिका धन प्रमाण बतलानेके लिये ग्रन्थकारने उपमा प्रमाणके आठ भेदोंका कथन किया है । जो प्रमाण किसीकी उपमाके द्वारा जाना जाता है उसे उपमा प्रमाण कहते हैं। पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, धनांगुल, जगणि, लोक प्रतर और लोक ये आठ उपमा प्रमाणके भेद हैं । (गा० १, ९३)। १. 'मंगल कारणहेदु सत्थस्स पमाण णाम कतारा । पठम चिय कहिदव्वा एसा ___ आइरिय परिभासा ॥७॥-ति० ५०, अ० १ । २. पंचविहो उवक्कमो। तं जहा-आणुपुब्बी, णाम, पमाणं वत्तव्वदा, अत्था
हियारो चेदि ।-क० पा०, भा० १, पृ० १३ । ३. मंगल-णिमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा
वक्खाणउ सत्थमाइरियो ॥१॥-षट्खं० पु० १ पृ० ७ ।