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________________ २० : जेनसाहित्यका इतिहास ६. इसी तरह अ० ४ गा० २५७८में मेरुका विस्तार तल भागमें दस हजार योजन और पृथ्वी पृष्ठ पर ९४०० योजन बतलाया है। किन्तु गाथा २५८१में मतभेद देते हुए लिखा है कि कितने ही आचार्य मेरुके तल विस्तारको ९५०० योजन तक मानते हैं । यह मतभेद धातकी खण्डस्थ मेरुके सम्बन्ध में है। किन्तु अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक ३।३३में घातकीखण्डस्थ मेरुका मूलमें विस्तार ९५०० योजन और धरणी तलपर विस्तार ९४०० योजन लिखा है । यह कथन ति०प०के उक्त दोनों मतोंसे नहीं मिलता। ७. अधिकार ८ गाथा ११५में बतलाया है कि कोई आचार्य स्वर्गके बारह कल्प मानते हैं और कोई सोलह कल्प मानते हैं। तदनुसार ग्रन्थकारने प्रथम वारह कल्पोंको गिनाया है और पश्चात् मतान्तर रूपसे सोलह कल्पोंको गिनाया है। इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार बारह कल्पोंके पक्षपाती हैं । यद्यपि उन्होंने दोनों ही मान्यताओंके आधारसे कथन किया है। किन्तु प्राथमिकता बारह कल्पकी मान्यताको ही दी है । यथा, गाथा ५२५-२६में पहले बारह कल्पोंकी विवक्षासे देवियोंकी आयुका प्रमाण बतलाया है फिर गाथा ५२७-२९ सोलह कल्पोंकी मान्यता वालोंके मतसे उक्त आयुका प्रमाण बतलाया है। वर्तमानमें जो संस्कृत लोक विभाग पाया जाता है जो कि प्राकृत लोकवेभागकी भाषाको परिवर्तित करके रचा गया है उनमें भी दोनों मतोंका कथन है। श्वेताम्बर परम्परामें बारह कल्प ही माने गये हैं जबकि दिगम्बर परम्परामें १६ कल्प माने गये हैं। ९. इसी ८वें अ० में गा० ५११में सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भाग म तेतीस सागर जघन्य आयु किन्हीं आचार्य के मतसे बतलाई है। यह मत न्यत्र नहीं पाया जाता। सर्वार्थसिद्धिसे च्युत हुए देवोंके सम्बन्धमें गा० ६८४ i कहा है णवरि विसेसो सम्वट्ठसिद्धिठाणदो विच्चुदा देवा । वज्जा सलाग पुरिसा णिव्वाणं जंति णियमेण ।।६८४॥ इसका अनुवाद किया गया है कि विशेष यह है कि सर्वार्थसिद्धिसे च्युत हुए देव लाका पुरुष न होकर नियमसे निर्वाणको प्राप्त होते हैं । अनुवाद ठीक है किन्तु .० ४ गाथा ५२२ आदिमें लिखा है कि ऋषभ और धर्मादि तीन तीर्थंकर र्वार्थसिद्धिसे अवतीर्ण हुए। अतः उक्त गाथामें वज्जाके स्थानमें भज्जा पाठ |ना चाहिए। अर्थात् सर्वार्थसिद्धिसे च्युत हुए देव निर्वाण तो नियमसे जाते हैं रन्तु शलाका पुरुष होते भी हैं नहीं भी होते ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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