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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३२७ ९. 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' ॥५-३॥ सूत्रको टीकामें सिद्धसेनने 'अपर'' करके लिखा है कि अन्य 'नित्य' पदको अवस्थितका विशेषण मानते हैं और 'नित्यप्रजल्पित' की तरह उसका समास करते हैं । अकलंकदेवने 'नित्य' को अवस्थितका विशेषण माना है और 'नित्यप्रजल्पित देवदत्त' का उदाहरण दिया है । अतः यह उल्लेख तो सिद्धसेनके द्वारा तत्त्वार्थवातिकका उपयोग किये जानेके पक्षमें अकाटय प्रमाण है । ऐसे प्रमाण अनेक हैं। १०. पाँचवे अध्यायमें दार्शनिक विषय होनेके कारण सिद्धसेनने तत्त्वार्थवार्तिकका काफ़ी उपयोग किया है । सूत्र ५-१६ की व्याख्यामें त०वा० में उद्धृत 'वर्षातपाभ्यां किं व्योम्न' आदि कारिका भी उद्धृत की है। सूत्र ५-१८ की व्याख्यामें अकलंकदेवने आकाशको अनावृत्तिरूप, तथा शब्दलिंग और प्रधान विकार माननेवाले मतोंका निराकरण किया है, सिद्धसेनने भी उसी क्रमसे तीनों मतोंका निराकरण किया है। सूत्र ५-२२ की टीकामें तो इस सूत्रकी अकलंकदेवकृत उत्थानिका ज्योंकी त्यों शब्दशः लेली है । वर्तनाका लक्षण भी तभ्वा० से लिया है । और भी बहुत कुछ इस सूत्रकी वार्तिकोंसे लिया है। सूत्र ५-२४ की टीकामें अकलंकदेवने स्फोटका खण्डन किया है, सिद्धसेनने भी किया है। अकलंकदेवने छायाके सम्बन्धसे प्रतिबिम्बका विचार किया है, सिद्धसेनने भी किया है। सूत्र ५-३१ की टीकामें सिद्धसेनने सप्तभंगीका जो विवेचन किया है वह तत्त्वार्थवातिकके सूत्र ४-४२ में किये गये सप्तभंगी विवेचनका कहीं-कहीं तो शब्दशः ऋणी है। __ अतः यह निश्चित है कि सिद्धसेनाचार्यने तत्त्वार्थटीकाकी रचनामें सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकका पूरा उपयोग किया है। अतः पं० सुखलालजीने जो सिद्धसेनके द्वारा अकलंकके तत्त्वार्थवातिककदेखनेकी संभावनाकी है वह केवल संभावना ही नहीं है, वस्तुभूत सत्य है । १. 'अपरे नित्यग्रहणमवस्थितविशेषणं कल्पयन्ति नित्यमवस्थितानि नित्या वस्थितानि.नित्यप्रजल्पितवत् ।'-सि० टी०, भा० १, पृ० ३२१ । 'नित्यग्रहणमिदमवस्थितविशेषणं .."नित्यप्रजलितो देवदत्तः' इत्युच्यते ।'-तवा०, पृ० ४४३ । २. 'अवश्यं सतोपकारिणा भवितव्यम् । संश्चकालोऽभिमतः स किमुपकार इति । तस्य खलु वक्ष्यमाण स्वतत्त्वमूतः'-सि० टी०, पृ० ३४८ । त० वा०, पृ० ४७६ । ३. 'सा च वर्तना प्रतिद्रव्यपर्यायमन्त तकसमयस्वसत्तानुभूतिलक्षणा'-सि० ___टी०, पृ० ३४९ ।-त० वा०, पृ० ४७७ । ४. त० स० की प्रस्ता०, पृ० ४२ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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