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३२८ : जैनसाहित्यका इतिहास
सिद्धसेनीय वृत्तिकी दार्शनिकयोग्यता
सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के साथ सिद्धसेनकी वृत्तिकी तुलना करते हुए पं० सुखलालजीने लिखा' है— 'जो भाषाका प्रसाद, रचनाकी विशदता और अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें है, वह सिद्धसेनीय वृत्तिमें नहीं है । इसके दो कारण हैं - एक तो ग्रन्थकारका प्रकृतिभेद और दूसरा कारण पराश्रित रचना है । सर्वार्थसिद्धिकार और राजवार्तिककार सूत्रोंपर अपना-अपना वक्तव्य स्वतंत्ररूपसे ही कहते हैं । सिद्धसेनको भाष्यका शब्दश: अनुसरण करते हुए पराश्रित रूपसे चलना पड़ता है । इतना भेद होनेपर भी समग्र रीति से सिद्धसेनीय वृत्तिका अवलोकन करते समय मनपर दो बातें तो अंकित होती ही
। उनमें पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिककी अपेक्षा सिद्ध सेनीयवृत्तिकी दार्शनिक योग्यता कम नहीं है । पद्धति भेद होनेपर भी समष्टि रूपसे इस वृत्तिमें भी उक्त दो ग्रन्थों जितनी ही न्याय, वैशेषिक, सांख्ययोग, और बौद्ध दर्शनोंकी चर्चाकी विरासत है । और दूसरी बात यह है कि सिद्धसेन अपनी वृत्तिमें दार्शनिक और तार्किक चर्चा करते हुए भी अन्तमें जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी तरह आगमिक परम्पराका प्रबलरूपसे स्थापना करते है ।'
असल में अकलंकदेव दार्शनिक थे और सिद्धसेन आगमिक थे । दर्शन और आगमकी शैलीमें जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर उन दोनोंकी कृतियोंमें है । अकलंकदेव आगमिक चर्चा में भी दार्शनिक चर्चाका वातावरण उत्पन्न कर देते हैं । किन्तु सिद्धसेन दार्शनिक चर्चा करते हुए भी अपनी अभ्यस्त आगमिक शैलीका परित्याग नहीं करपाते । इसमें सन्देह नहीं कि सिद्धसेनको भाष्यका व्याख्याकार होनेसे पराश्रित रूपसे चलना पड़ा है, फिर भी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ वार्तिक जैसी तत्त्वार्थ टीकाओंके सन्मुख रहनेसे और वसुबन्धु, दिग्नाग, भर्तृहरि धर्मकीर्ति, उदयन जैसे तार्किकोकी रचनाओंके कारण भारतवर्ष के तत्कालीन साहित्यिक वातावरण में दर्शनकी छाप छायी होनेसे सिद्धसेनने भी अपनी वृत्तिमें यथा स्थान दार्शनिक चर्चाएँ की हैं । और उनके देखनेसे प्रतीत होता है कि उन्होंने आगम के विशिष्ट अभ्यासी होते हुए भी उक्त दार्शनिकोंके ग्रन्थोंका भी अध्ययन किया था | पांचवे अध्यायकी अपनी टीकामें उन्होंने 'धर्मकीर्तिके प्रमाणविनिश्चयका, दिग्नागका तथा 'वार्तिककार ४ नामसे न्यायवार्तिकके रचयिता
९. वही, पृ० ८१ ।
२. भिक्षुवर धर्मकीर्तिनाऽपि विरोध उक्तः प्रमाणविनिश्चयादी - पृ० ३९७ । ३. 'दिग्नागेनाप्युक्तम्' – पृ० ३९७ ।
४. 'एवमुक्ते वार्तिककारेणोक्तं समवायो न क्वचिद्वर्तते इति ब्रूमः ' - पृ० ४३५ ।