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३२६ : जैनसाहित्यका इतिहास में जो युक्ति दी गई है, सिद्धसेनने उक्त सूत्रकी अपनी टीकामें भी वही युक्ति प्रायः उन्हीं शब्दों में दी है।
६. सत्र २-४ की व्याख्यामें' अकलंकदेवकी तरह सिद्धसेनने भी क्षायिक भावोंमें सिद्धत्व भावको ग्रहण करने की बात उठाई है। किन्तु उसके समाधानमें दोनोंमें अन्तर है।
७. सूत्र २-६की व्याख्यामें भी अकलंकदेवकी तरह सिद्धसेनने भी औदयिक भावोंमें निद्रादि पाँच, दोनों वेदनीय, हास्यादि षट्क, आयु, नाम, गोत्र आदि को भी ग्रहण न करनेपर आपत्ति की है और उन सबका अन्तर्भाव भी प्रायः अकलंककी ही तरह किया है । कहीं तो शब्द साम्य भी है।
८. सूत्र 'संसारिणो मुक्ताश्च' २-१० की व्याख्या २ अकलंकदेवने सूत्र में मुक्तोंसे पहले संसारियोंका ग्रहण किये जानेमें तीन हेतु दिये हैं-संसारिजीवोंके बहुत भेद हैं, संसारी पूर्वक ही मुक्त होते हैं तथा संसारी जीव स्वसंवेद्य हैं । इस सूत्रकी व्याख्यामें सिद्धसेनने अकलंकदेवके इन तीनों हेतुओंको लेलिया है। तथा अकलंकदेवने 'च' शब्दका ग्रहण उपयोगों की गौणता और मुख्यता बतलानेके लिए माना है । सिद्धसेनने भी ऐसा ही मान्य किया है।
१. "सिद्धत्वमपि क्षायिकमागमोपदिष्टमस्ति तस्योपसंख्यानमिह · कर्तव्यम ।'
-त० वा०, पृ० १०६ । 'ननु च सिद्धत्वमपि क्षायिको भावः स चेह न निर्दिष्टः सूरिणा, को अभिप्रायः' -सि० टी०, भा० १, पृ० १४३ । २. 'अत्र चोद्यते....."निद्रानिद्रादय औदयिकाः, वेदनीयोदयात् सुखदुःखमो
दयिक, नौकषायाश्च हास्यरत्यादयः ....... लिंगग्रहणे हास्य-रत्याद्यन्त
र्भाव “गतिग्रहणमधात्युपलक्षणम्" "तेन जात्यादयो भावा... ।'-त. वा०, पृ० १०९-११० । 'ननु च। निद्रादिपञ्चकं वेदनीयमभयं मोहनीये हास्यादिषट्कं, आयु""नामकर्म "गोत्रमुभयमपि"गतिग्रहणाच्छेषनामभेदाः। लिंगग्रहणात् हास्यादिषट्क ग्रहणम्""।' -सि० टी०, भा० १, पृ० १४५-१४६ । ...."च शब्दोऽनर्थक इति चेत् न, उपयोगस्य गुणभावप्रदर्शनार्थत्वात् ।... संसारिग्रहणमादी बहु विकल्पत्वात्, तत्पूर्वकत्वात् स्वसंवेद्यत्वाच्च'-त. वा०, पृ० १२५ । 'संसारिणामादावुपन्यासः प्रत्यक्ष-बहुभेदवाच्यार्थः । तदनु मुक्तवचनं संसारिपूर्वकत्वप्रसिद्धयर्थ ।""प्रधानगुणभावख्यापनार्थो वा च शब्दो दृष्टव्यः ।'-सि० टी०, भा० १, पृ० १५६ ।