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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३२५ हैं । हम तो प्रकृतका ही अनुसरण करते हैं । 'अकलंकदेवने 'पोतज' शब्द पर आपत्ति करते हुए पोत शब्दका ही समर्थन किया है। किन्तु दिगम्बर सूत्र पाठमें 'जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः' सूत्र है । यहाँ वह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि सर्वार्थसिद्धिमें 'पोतज' शब्दकी कोई चर्चा नहीं है।
२. भाष्य मान्य सूत्र पाठमें 'द्रव्याणि जीवाश्च ॥५-२॥' एक ही सूत्र है और सर्वार्थसिद्धिमान्य मूल पाठमें 'द्रव्याणि और जीवाश्च' इस तरह दो सूत्र हैं । 'अपरे सूत्रद्वयमेतदधीयते 'द्रव्याणि, जीवाश्च' लिखकर सिद्धिसेनजीने उसका उल्लेख किया है। इसी तरह कुछ अन्य दिगम्बर मान्य सूत्रोंका भी निर्देश है । और उसका होना विशेष महत्त्व नहीं रखता। सिद्धसेनजीने सर्वार्थसिद्धि का कम किन्तु तत्त्वार्थ वार्तिकका उपयोग विशेष रूपसे अपनी टीकामें किया है, आगे उसीका विशेष रूपसे दिग्दर्शन कराया जाता है ।
३. अकलंकदेवने ( त०२ वा० १० ११९ में) लक्षणके दो भेद किये हैं आत्मभूत और अनात्मभूत । सिद्धसेनजीने यही दोनों भेद तत्स्थ और अतत्स्थ नामसे किये हैं। तथा 'तत्स्थ' लक्षणका दृष्टान्त अग्निका औष्ण्यगुण, अकलंकदेवकी तरह ही बतलाया है।
४. 'मतिः स्मृतिः' इत्यादि सूत्र ( १-१३ ) की टीकामें सिद्धसेनजीने 'अपरे' पदके द्वारा बतलाया है अन्य तो शतक्रतु और शक शब्दोंकी तरह मति स्मृति आदिको पर्याय शब्द मानते हैं। सर्वार्थसिद्धिमें इस सूत्रकी व्याख्यामें इन्द्र शक पुरन्दर शब्दोंकी तरह मति स्मृति आदिको पर्याय शब्द माना है।
५. सूत्र १-१९ की व्याख्यामें सर्वार्थ में चक्षुको 'अप्राप्यकारी सिद्ध करने---------- १. 'केचित् पोतजा इति पठन्ति । तदयुक्तम् । कुतः ! अर्थभेदाभावात् ।'
-त० वा०, पृ० १४४ । २. तल्लक्षणं द्विविधं आत्मभूमनात्मभूतञ्चेति । तत्रात्मभूतमग्नेरोष्यम् । - त० वा०, पृ० ११९ । 'लक्षणं द्विविधं तत्स्थमतत्स्थं चेति तत्स्थममग्नेण्यवत्'
-सि० ग० टी०, भा० १, पृ० ७७ । ३. अपरे तु सर्वे पर्यायशब्दा एवैते शतक्रतु-शक्रादिशब्दवत् इति मन्यन्ते ।'
-वही, पृ० ७८ । 'सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिवललाभात् पर्यायशब्दत्वम् ।
यथा इन्द्रः शकः पुरन्दर इति' -सर्वा० सि० । ४. 'यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमंजनं गृह्णीयात् । न तु गृह्णाति ।'
-सर्वा० सि० । 'यदि स्यात् ततस्तद्गतमञ्जनादि परिच्छिन्द्यात्, न च परिच्छिनत्ति ।'-वही भा० १, पृ० ८७ ।