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३२४ : जैनसाहित्यका इतिहास एक तीसरे मतका उल्लेख टीकामें' किया है, जो पाँच कारिकाओंमें है। पाँच कारिकाओंका टीकाकार सिद्धसेनने संक्षेपसे अर्थ देकर लिखा है कि-'इनका व्याख्यान तो निविरोध रूपसे आगमके ज्ञात विद्वान ही करेंगे। हम तो उसके विषयमें अनिपुण है आदि।'
इससे ज्ञात होता है कि भाष्यका कोई व्याख्यान कारिकाओंमें भी था। अथवा उस घ्याख्यानमें कारिकाएं भी थीं। कारिकाओंको देखनेसे यह भी ब्यक्त होता है कि वह व्याख्यान उच्चकोटिका होना चाहिये ।
इस तरहसे सिद्धसेनकी इस टीकामें सूत्र तथा भाष्यके अन्य विवरणोंका भी उल्लेख है । और वे विवरण तीन तो अवश्य प्रतीत होते हैं ।
सिद्धसेनजी ने कई स्थानोंपर मतान्तरके रूपमें ऐसे सूत्रोंका भी उल्लेख किया है जो दिगम्वरीय सूत्रपाठसे सम्बद्ध हैं और उन्हें मान्य नहीं किया है। यथा
१. सूत्र २-३४ को टीकामें लिखा है-'अपरे तु एतच्छब्दव्युत्पत्तिभीत्या 'जराय्वण्डजपोतानां गर्भ इत्यभिधीयते सूत्रमाहितनैपुण्यास्तत् सर्वथा त एवावयन्ति सूरिविरचितन्यासमन्यथाकतु, वयं तु प्रकमानुसरणमेव कुर्मः ।'
- ( भा० १, पृ० १९३ ) अर्थात् दूसरे लोग अपनी निपुणता बतलानेके लिये पोतज शब्दकी व्युत्पत्तिसे भयभीत होकर 'जराय्वण्डजपोतानां गर्भः' ऐसा सूत्र कहते है । वे आचार्यके द्वारा रचे हुए न्यासको अन्यथा करनेके लिये ऐसा करते
१. 'अपरे तु ध्रौव्यं च' इत्य समस्ततामन्यथा वर्णयन्ति
'लक्षण्ये सतः सादिः कथं सन्न त्रिलक्षणम् । ध्रौव्यं तल्लक्षणत्वेन द्रव्यार्थेन त्रिषूदितम् ॥१॥ अत एव पृथग् वृत्तौ ध्रौव्यं चेति प्रदर्शितम् । सत् त्रिरूपं त्रयं त्वेतत् सम्भवेन विकल्पते ॥२॥ आद्ययो नियमादन्त्यमन्ये तु भजनाद्ययोः । स्वतः परनिमित्तौ तु स्यातामप्युपचारतः ॥३॥ अस्ति नोत्पद्यते चैकमेकमुत्पद्यतेऽस्ति च ।। नास्ति चोत्पद्यते चैकं नास्ति नोत्पद्यते परम् ॥४॥ आकाश परमाणू च प्रदीपान्त्यशिखादि च ।
आकाशकुसुमं चेति चतुष्टयमुदाहृतम् ।।५।।' संक्षेपतः कारिकापञ्चकस्यायमर्थः......"तदेतत् पौर्वापर्येणालोच्य कृत, प्राज्ञरागमजैरेव व्याख्यास्यते निविरोध, वयं तत्रानिपुणाः किञ्चिदेव स्थूलकुशलतयाऽभिदध्महे ।' –स० ग० टी० पृ० ३८२ ।