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तत्त्वार्थविषयक टीका - साहित्य : ३२३
लिखा है—'कैश्चिदेवं भाष्यमेतद् व्याख्यायि ( पृ० २९ ) । अर्थात् किन्होंने इस भाष्यका ऐसा व्याख्यान किया है । उस व्याख्यानको बतलाकर 'अपरे तु प्रभाषन्ते' अन्य ऐसा कहते हैं । ऐसा लिखकर उनका व्याख्यान बतलाया है । इन दोनों व्याख्यानोंमें अन्तर हैं । अतः उनसे प्रकट होता है कि दोनों दो भिन्न व्याख्याएँ हैं ।
२. सूत्र ४ - २७ की टीकामें 'अपरे वर्णयन्ति' लिखकर 'द्विचरमाः' का अन्य अर्थ दिया है और फिर 'एतत्त्वयुक्तं व्याख्यानम्' लिखकर उस व्याख्यानको अयुक्त बतलाया है । यह नहीं कह सकते कि यह व्याख्यान उन्हीं दोनोंमें से किसी एक का है जिनका ऊपर निर्देश है, या उनसे भिन्न तीसरा ही हैं ।
३. 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।।५- ३ ||' सूत्रकी टीका में इस सूत्रके विषय में मतभेद दिये हैं । 'अपरे द्विधा भिन्दन्ति सूत्रम् से बतलाया है कि कुछ इस सूत्रको दो भागों में भाजित करते हैं 'नित्यावस्थितानि' और अरूपाणि । किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि ऐसा करनेवाले कोई व्याख्याकार ही हैं । आगे 'अपरे वर्णयन्ति' लिखकर दूसरोंका कथन बतलाया है कि सूत्र एक ही है किन्तु अरूपाणिको अलग पद रखनेका कारण यह है कि नित्य और अवस्थितकी तरह पूर्वोक्त सभी द्रव्य अरूपी नहीं हैं ।' आगे 'अत्रापरे व्याचक्षते' से तीसरा मत दिया है- उनका कहना है कि 'नित्यावस्थितारूपाणि पाठ रखने से भी काम चल सकता है । अतः तीनों पदोंको समस्त करके ही सूत्र पढ़ना चाहिये । ये दोनों मत दो व्याख्याकारोंके ही प्रतीत होते हैं ।
४. इसी उक्त सूत्र (५-३) की अन्य आचार्य भाष्यका अन्य रूपसे बतलाया है और उसको अयुक्त भी
टीकामें 'अपरेऽन्यथा वर्णयन्ति भाष्यम् – व्याख्यान करते हैं' लिखकर उनका आशय ठहराया है ।
५. ' उत्पाद - व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥५- २९ || इस सूत्रका भाष्य इस प्रकार है—'उत्पादव्ययाम्यां ध्रौव्येण च युक्तं सतो लक्षणम् ।' इस भाष्यके पाठ तथा व्याख्यान में अन्तरका उल्लेख करते हुए श्री सिद्धसेनगणिने अपनी टीकामें ( भा० १, १०३८२ ) लिखा है - 'अन्ये तु उत्पादव्ययधौव्यं युक्तमिति गृहृते ।' और फिर अपनी ओरसे उसपर आक्षेप करके आगे लिखा है- 'अपरे समाधानमाक्षेपस्याभिदधते - दूसरे इस आक्षेपका समाधान करते हैं ।
इसके अतिरिक्त भी 'अपरे तु' ध्रोव्यं च' इत्यसमस्ततामन्यथा वर्णयन्ति' के द्वारा भाष्यके उक्त वाक्य में उत्पादव्ययसे श्रीव्यको अलग रखने के सम्बन्धमें