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________________ ३२२ : जैनसाहित्यका इतिहास उक्त दो उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि श्री सिद्धसेनने जहाँ भाष्यके कथनको श्वे० आगमोंके प्रतिकूल देखा, वहाँ उसका व्याख्यान भाष्यकारके आशयके अनुरूप न करके आगमके अनुकूल किया है। और जहाँ ऐसा करना संभव न हो सका वहाँ उस कथनको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त करार दिया है और कहीं-कहीं अपनी अनभिज्ञता बतलाकर टाल दिया है। जैसे— भाष्य में दूसरे संहननका नाम अर्धवज्र र्षभनाराच है, और कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थोंमें उसका नाम 'वज्रनाराच' है, दोनोंके स्वरूपमें भी इसीसे अन्तर पड़ गया है | इसके सम्बन्ध में 'गणिजीने लिखा है - ' इसमें क्या तत्त्व है यह सम्पूर्ण अनुयोगघर ही जानते हैं ।' शैली- - उक्त बातोंसे इस वृत्तिको रचना शैलीका भी आभास मिल जाता है । सिद्धसेनने भाष्यका प्रायः प्रतिपद व्याख्यान किया है और व्याख्यान करते हुए यथास्थान आगमिक प्रमाण भी दिये हैं और विशेष चर्चाएँ भी की हैं । उन चर्चाओं में आगमिक तो हैं हीं, दार्शनिक भी हैं और उनका अपनी शैली में यथायोग्य निर्वाह भी किया है । तत्त्वार्थ भाष्य और सूत्रोंके व्याख्यानमें अपने समयकी उपलब्ध सामग्रीका उन्होंने पूरा उपयोग किया है । उनकी टीकासे ज्ञात होता है कि जिस सूत्रपाठका उन्होंने उपयोग किया, उनके सम्बन्धमें कितने अधिक पाठान्तर ही नहीं व्याख्यान्तर भी उनके सामने थे । और वे ब्याख्यान्तर प्रायः भाष्यसे भी सम्वद्ध थे । किन्तु भाष्य और उसके सूत्रपाठपर संभवतया गणिजी की वृत्ति जैसी स्थूलकाय और प्रमेयबहुल टीका दूसरी नहीं थी, जबकि दिगम्बर सूत्रपाठपर अकलंकदेवका तत्त्वार्थवार्तिक जैसा उच्चकोटिका दार्शनिक टीका ग्रन्थ वर्तमान था । संभवतया उसी अभावकी पूर्तिके लिये गणिजीने भाष्यपर इतनी स्थूलकाय अट्ठारह हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी है । अस्तु, सिद्धसेन गणिके सन्मुख उपस्थित टीका ग्रन्थ सिद्धसेनने अपनी भाष्यानुसारिणी टीकामें तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी किसी टीकाका तो कोई स्पष्ट निदेश नहीं किया, किन्तु उसमें आगत उल्लेखोंसे ही उनका आभास मिलता है, जिसका विवरण नीचे दिया जाता है— १. सूत्र १ -१ के भाष्यमें एक वाक्य इस प्रकार है - 'एषां च पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरं, उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभ: ।' इसका व्याख्यान करके गणिजीने १. अर्धवज्रर्षभनाराच नाम तु वज्रर्षभनाराचनामधं किल सर्वेषां वज्रस्यार्धं ऋषभस्यार्धं नाराचस्यार्धमिति भाष्यकारमतम् । • कर्मप्रकृतिग्रन्थेषु वज्रनाराचनामैवं पट्टहीनं पठितम् । किमत्र तत्त्वमिति सम्पूर्णानुयोगधारिणः क्वचित् संविद्रते ।' – भा० २, पृ० १५४ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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