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________________ ३१८ : जैनसाहित्यका इतिहास लाल जी ने इस उल्लेखको भ्रान्तिजन्य बतलाया है और अपने इस कथन के समर्थनमें उन्होंने जो प्रबल और अकाट्य प्रमाण उपस्थित किया है वह यह है कि उपाध्याय यशोविजय जी से पहले के अनेक ग्रन्थोंमें जो गन्धहस्तीके नामसे अवतरण मिलते हैं वे सभी अवतरण जरा भी परिवर्तन बिना और कहीं बहुत थोड़े परिवर्तन के साथ तथा कहीं भावसाम्यके साथ सिद्धसेनगणिकी तत्त्वार्थभाष्य पर रचित वृत्ति में मिलते हैं। इससे यह निर्विवाद रूपसे सिद्ध होता है कि उपलब्ध तत्त्वार्थ वृत्तिके रचयिता गणी सिद्धसेन ही गन्धहस्ती हैं । सन्मति टीकाकार दशवीं शताब्दी के अभयदेवने अपनी टीकामें दो स्थानों पर गन्धहस्तिकृत तत्त्वार्थव्याख्या देखलेने की सूचना की है । उक्त प्रमाणके प्रकाशमें यहू गन्धहस्तिकृत तत्त्वार्थव्याख्या सिद्धसेन गणिकृत तत्त्वार्थव्याख्या ही होनी चाहिये । उक्त कथन के समर्थन में एक लिखित प्रमाण भी उपलब्ध है । तत्त्वार्थपर एक टीका हरिभद्रकी भो है जो अधूरी है । अधूरी वृत्तिके पूरक यशोभद्रसू रिके शिष्यने इस टीकाके अन्त में सिद्धसेनकी उक्त टीकाका उल्लेख करते हुए सिद्धसेनको गन्धहस्ति विशेषणसे अभिहित किया है । अतः यह निर्विवाद है कि उपलब्ध तत्त्वार्थभाष्यवृत्तिके रचयिता सिद्धसेन ही गन्धहस्ती हैं । १. त० सू० की प्रस्ता०, पृ० ३६ । २. 'आह च गन्धहस्ती - निद्रादयः समधिगताया एव दर्शनलब्धेरुपघाते वर्तन्ते दर्शनावरणचतुष्टयन्तूद्गमोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति ।' - प्रव० सारो० वृत्ति, पृ० ३५८ । सितरी टी० मलयगिरि, गा० ५ । 'निद्रादयो यतः समधिगताया एव दर्शनलब्धेः उपयोगघाते प्रवर्तन्ते चक्षुदर्शनावरणादि चतुष्टयं तद्गमोच्छेदित्वात् मूलघातं निहन्ति दर्शन लब्धिम् ।' -त० भा० टी०, भाग २, पृ० १३५ । 'यदाह गन्धहस्ती - भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य सयोगायोगभेदस्य सिद्धस्य वा दर्शनमोहनीसप्तकक्षयाविर्भूता सम्यग्दृष्टि सादिरपर्यवसाना इति ।' - नवपदवृत्ति पृ० ८८ । 'या तु भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य सयोगायोगभेदस्य सिद्धस्य वा दर्शनमोहनीयसप्तकक्षयादपायसद्द्रव्यक्षयाच्चोदपादि सा सादिरपर्यवसाना इति ।' - त० भा० टी०, भा० १, पृ० ५९ । ३. सन्मति टी०, पृ० ५९५ तथा पृ० ६५१ । ४. 'एतदुक्तं भवति हरिभद्राचार्येणार्द्धषण्णामध्यायानामाद्यानां टीका कृता, भगवतां तु गन्धहस्तिना सिद्धसेनेन नन्या कृता तत्त्वार्थ टीका !' - त० सू० हरि० टी०, पृ० ५२१ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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