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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३१७ अकलंकदेवकी जैन न्यायको सबसे बड़ी देन है उनके द्वारा की गई प्रमाण व्यवस्था । दिगम्बर' और श्रेताम्बर सम्प्रदायके आचार्योंने अपनी-अपनी प्रमाण मीमांसाविषयक कृतियोंमें कुछ भी फेरफार किये बिना एक ही जैसी रीतिसे अकलङ्कदेवकी की हुई योजना और ज्ञानके वर्गीकरणको स्वीकार किया है। अतः यह निश्चित है कि धनंजय कविने प्रसिद्ध जैन दार्शनिक अकलंकका ही उक्त श्लोका स्मरण किया है।
धनंजय कविके पश्चात् उनका उल्लेख वीरसेन स्वामीने अपनी धवला जय धवलामें और उनके शिष्य जिनसेनने अपने महापुराणके प्रारम्भमें किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्त्वार्थ भाष्य' के नामसे उनके तत्त्वार्थ वातिकका तथा सिद्धि विनिश्चयका उल्लेख करके उनसे उद्धरण दिये हैं। किन्तु जिनसेनने 'भट्टाकलंक श्रीपाल पात्रकेसरिणां गुणाः' लिखकर उनका नामोल्लेख किया है। तथा वीरसेनने ३ धवलामें 'इति' शब्दके अर्थ बतलानेके लिए एक श्लोक उद्धत किया है जो धनंजय कविकी अनेकार्थ नाम मालाका ३९ वां श्लोक है । अतः धनञ्जय वीरसेनसे पहले हुए हैं और धनञ्जय से पहले अकलंक हुए हैं यह निश्चित है। पं० महेन्द्र कुमारजी इससे सहमत हैं । किन्तु वह अकलंक; धनञ्जय और वीरसेनको समकालीन बतलाते हैं। यही बात विवाद ग्रस्त है। आचार्य सिद्धसेन गणि
श्वेताम्बर परम्परामें सिद्धसेनगणि नामके एक समर्थ आचार्य हो गये हैं। उन्होंने तत्त्वार्थभाष्य पर एक बृहत्काय वृत्ति ग्रन्थ रचा है। उनकी इस वत्तिसे कुछ उद्धरण कई टीका ग्रन्थोंमें 'गन्धहस्ती' के नामसे उध्दृत पाये जाते हैं ।
विक्रमकी पांचवीं शताब्दीमें सिद्धसेन दिवाकर नामसे एक प्रख्यात जैनाचार्य हो गये हैं। श्वेताम्बर परम्परामें इन्हें गन्धहस्ती तथा तत्त्वार्थका वृत्तिकार माना जाता था। इसका कारण यह था कि सतरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय यशोविजयजीने अपने 'महावीरस्तव में गन्धहस्तीके नामसे सिद्धसेन दिवाकरके 'सन्मति' की एक गाथा उध्दृत की है। किन्तु पं० सुख
१. देखो, पं० सुखलालजीका 'जैनोंकी प्रमाण मीमांसा पद्धतिका विकासक्रम'
शीर्षक लेख-अनेकान्त, वर्ष १, कि० ५, पृ० २६३ । २. क. पा०, भा० १, पृ० २१७ । षट् खं०, पु० १, पृ० १०३ तथा,
पु० १३, पृ० २५६ । ३. षट्वं०, पु० १३, पृ. २३७ ।