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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका - साहित्य : ३१९ नवमी दसमी शताब्दीके ग्रन्थकार शीलाङ्कने' अपनी आचारांग सूत्रकी टीकामें एक गन्धहस्तीकृत विवरणका उल्लेख किया है । उक्त प्रमाणोंके प्रकाश में यह विवरण भी तत्त्वार्थभाष्यवृत्तिके रचयिता सिद्धसेनका ही होना चाहिये । इस तरह इन सिद्धसेनकी दो रचनाओंका पता चलता है जिनमेंसे एक तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति उपलब्ध है और मुद्रित हो चुकी है, दूसरी रचना, जो आचाराङ्ग सूत्रकी टीका ज्ञात होती है, अभी तक अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति - सिद्धसेन गणिकी यह वृत्ति तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यको शब्दश: स्पर्श करती है और उसका विवेचन करती है । इसके अध्यायोंके अन्तकी पुष्पिकाओं में प्राय. 'भाष्यानुसारिणी' लिखा मिलता है । इस वृत्तिके अवलोकनसे प्रकट होता है कि सिद्धसेन गणि विशेषावश्यक भाष्यके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी ही तरह आगमिक परम्पराके प्रबल पक्षपाती थे । यद्यपि उन्होंने अपनी यह वृत्ति तत्त्वार्थभाष्यका विवेचन करनेके उद्देश्यसे ही लिखी जान पड़ती है और उसमें दार्शनिक और तार्किक चर्चाएं भी है, तथापि भाष्य का विवेचन करते समय भाष्यका आश्रय लेकर वह सर्वत्र आगमिक वस्तुका ही प्रतिपादन करते हैं और जहाँ भाष्य आगमसे विरुद्ध जाता दिखाई देता है वहाँ भी उसकी कड़ी आलोचना करते हुए वह आगमिक परम्पराका ही समर्थन करते हैं और उसीका प्रबलरूपसे स्थापन करते हैं । किन्तु भाष्यके आगमविरुद्ध उल्लेखोंकी कड़ी आलोचना करते हुए भी भाष्यकार के प्रति अपनी श्रद्धा में वह रंचमात्र भो कालिमा नहीं लाते और उन सब आगम विरुद्ध उल्लेखोंको किसी धूर्तके द्वारा की हुई मिलावट कहकर आगे बढ़ जाते हैं । आगम और आगमिकों के प्रति यह उनकी गहरी श्रद्धाको व्यक्त करता है । अनेक स्थलोंपर सिद्धसेनने भाष्यके तथोक्त आगम विरुद्ध उल्लेखोंको अपनी अज्ञानता बतलाकर टाल दिया है, अनेक स्थलोंपर आगमकी रक्षा करनेके १. 'शास्त्रपरिज्ञा विवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्ति कृतम्' - आचा० टी०, पृ० १ । २ ' एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवति " रन्तरं द्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षद्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात् । नापि _बाचकमुख्याः सूत्रोलंल्घनेनाभिदघत्यसम्भाव्यमानत्वात् । - सि० ग० टी० भा० १, पृ० २६७ | नेदं पारमर्ष. प्रवचनानुसारिभाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतमेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवंविधमार्पविसंवादि निबध्नीयात् । सूत्रानवबोधात् उपजातभ्रान्तिका केनाऽपि रचितमेतद् वचनकम् । - भा० २ ० २०६ ॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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